काफी समय से पुरे संसार में अप्रकर्तिक संबंधों(?), जैसे होमो सेक्स तथा विवाह पूर्व संभंध (लिव-इन-रिलेशनशिप ) पर एक बहस चल रही है. इस के उचित/उनुचित ,कानूनी/गेरकानुनी सामाजिक/असामाजिक, धार्मिक/अधार्मिक होने के संभंध में बहस करने वालो के अपने अपने तर्क हैं. उन का अपना नज़रिया है, जिसे सही/गलत कहना खुद अपने आप में विवादास्पद है. कुछ पश्चिमी देशों ने इसे अपने जीवन मूल्यों के साथ अपना लिया है. पर हमारी सांस्कृतिक मान्यताएं हमें इस अप्रकर्तिक व्यवहार को अपनाने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं है. फिर भी हमारे समाज के बुध्जीवी वर्ग के लोग इस विवाद को अपनी उचित/उनुचित ,कानूनी/गेरकानुनी सामाजिक/असामाजिक, धार्मिक/अधार्मिक की कसौटी पर परख कर अपने खोज पूर्ण निष्कर्षों से सही/गलत साबित करने पर अमादा हैं. यदि उन के तर्कों को पुरी विचारशीलता के साथ परखा जाय तो यह बात स्पस्ट रूप से सामने आजाती है सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर कोई भी निर्णय लेना दुनिया की किसी भी अदालत के लिए संभव नहीं है. कोई भी जज कानूनी, धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को संतुस्ट करते हुए इस संभंध कोई सर्व मान्य निर्णय देने में सक्षम नहीं हो सकता. फिर भी हम इस विषय पर तर्क करने से नहीं चुकते.पर सवाल यह है की अगर हम आधुनिकता के नाम पर इन रिश्तों को अमली जामा पहनाते भी हैं तो तो सदिओं से सहेजे गए हमारी संस्कृति और संस्कारों का क्या होगा ?
कुल मिलाकर यह मसला किसी नैसर्गिक आवश्यकता से नहीं जुड़ा है बल्कि भोगवाद की पराकाष्ठा है कि सार्वजनिक मंच पर भी इस तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं कि लिवइन रिलेशनशिप वक्त और हालात की जरूरत है.वास्तविकता तो यह है की हमारे समाज में कुछ ऐसे अय्याश और भोगीलोग हैं जो तमाम तरह के कुकर्मो में लिप्त रहते हुए भोग के नए-नए साधनों की खोज में ही लगे रहते हैं. इस प्रकार की दूषित स्वतंत्रता के हामी भी वही लोग हैं. हमारे महानगरों में जीवन की एक नई शैली विकसित हो रही है, जिसमें घर-परिवार से दूर लड़के-लड़कियां जॉब कर रहे हों या पढ़ाई, उन्हें अपनी शारीरिक-मानसिक भूख को मिटाने के लिए ऐसे अनैतिक संबंधों की जरूरत पड़ रही है. तमाम लड़कियां नासमझी में और कुछ तो अपनी भौतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए लिवइन का सहारा लेती हैं.
इस फैसले के बाद इस प्रकार के संभंध को कानूनी संरक्षण तो मिल गया पर क्या कोई भी समाज इस बात को सामाजिक या धार्मिक परिवेश में गले से नीचे उतार पायगा?
नहीं ना?
फिर क्यों इस प्रकार के विबादित विषयों पर खामखाँ बहस कर के उन को कानूनी रूप देने का प्रयास किया जाता है. यह सत्य है की समाज और कानून एक दुसरे के पूरक हैं पर इस से यह अर्थ निकालना की किसी बात को कानूनी पजामा पहना कर उसे समाज पर थोपा जा सकता है, उचित नहीं कहा जा सकता. इस से समाज में अनावश्यक बाद विवाद, उलझन और असामाजिकता की स्थिती पैदा हो सकती है. इस बात की ओर न तो कानून को ही देखने की फुर्सत है और न ही उन तथा कथित समाजसुधारकों को, जो इस प्रकार के विवाद के बीज बोते हैं. इन समाजसुधारकों के प्रोत्साहन पर पहले भी कई बार कानून को विवादास्पद निर्णय देने के लिए वाध्य होना परा है. ज़रा देखीये तो -
उच्चतम न्यायालय के इन निर्णयों से पहले भी परतंत्र भारत में इस प्रकार के विवादास्पद फैसले होते रहे हैं. 1927 में अँगरेज़ जजों ने एक सिधांत का प्रतिपादन किया था जिसके अनुसार यदि कोई स्त्री - पुरुष पति-पत्नी के तरह एक साथ रहते हैं तो कानून की नजर में वे बिवाहित माने जाएंगे, यहाँ इस बात को संज्ञान में नहीं लिया जायगा की संभंधित महिला उसके साथ रखैल के तौर पर रहती थी। यहाँ एसा प्रावधान भी था की यदि पुरुष यह कहता है की उस महिला की शादी उस पुरुष से नहीं हुई थी, उसे अपनी बात को तथ्यों के आधार पर प्रमाणित करनी होगी।
अगर यह अवधि निर्धारित हो भी जाय तो इस बात की क्या गारण्टी है कि पत्नी का दर्जा मिलने के लिए जितना समय साथ रहना जरूरी है, वह कभी पूरा भी हो पाएगा? निश्चित अवधि पूरी होने के पहले ही स्त्री का भावनात्मक और दैहिक शोषण करके पुरुष यदि किसी दूसरी स्त्री के साथ लिव इन रिलेशनशिप बना ले तब क्या होगा? इससे उलट भी हो सकता है। स्त्री भी पुरुष का दैहिक और आर्थिक शोषण करके उसे कंगाल बना कर निश्चित अवधि से पहले छोड़ सकती है । खतरे दोनों तरफ मौजूद हैं। आज के दौर में उपभोगता वाद अर्थात यूज एंड थ्रो की वृत्ति इतनी प्रबल है कि यह वृत्ति रिश्तों पर भी हावी होती जा रही है। लिव-इन-रिलेशनशिप के हल्ले से पहले लोगों को इस प्रकार के समभंद बनाते समय कानून और समाज दोनों का भय होता था अतः पहले तो व्यक्ति ऐसे संभंध बनाने से ही परहेज़ करता था, अगर किसी ने बना भी लिए तो वोह इन्हें समाज से छुपा कर रखता था पट अब तो लोग पुरी बेशर्मी से कानून का हवाला दे कर हमारी संस्कृति और समाज के मुह पर कालिख पोतने से बाज नहीं आयेगे. इस के अलावा असली कोढ़ में खाज तो हमारा भांड मीडिया है जो अपनी TRP बढ़ाने के चक्कर में इस प्रकार के छिछोरी ख़बरों को भी राष्ट्रीय महत्व की ख़बरों के उपर रख कर इन को अनुचित महत्व दे कर प्रोत्साहित करने में कभी पीछे नहीं रहता.
लिव-इन-रिलेशनशिप को कानून में पहली बार एक पहचान तब मिली, जब घरेलू हिंसा कानून 2005 में महिलाओं को अपने पतियों तथा लिव-इन पार्टनर्स और उनके संबंधियों से संरक्षण प्रदान किया गया। अक्टूबर 2006 में जब यह कानून लागू हुआ तो इसमें शादीशुदा महिला ( विवाहिता) और लिव-इन-रिलेशनशिप (तथा कथित रखेल) वाली महिला में फर्क नहीं किया गया था।
एक मामले में के. सुब्बाराव पर अपने लिव-इन पार्टनर के साथ दहेज के लिए क्रूरता बरतने का आरोप था। बचाव में सुब्बाराव की दलील थी कि भारतीय दंड संहिता की दहेज प्रताड़ना वाली धारा 498 (ए) उन पर लागू नहीं होती क्योंकि लिव-इन पार्टनर से उनकी शादी नहीं हुई थी तथा उनकी शादी किसी दूसरी महिला से हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरिजीत पसायत और जस्टिस ए. के. गांगुली की बेंच ने उनकी दलील ठुकराकर दो टूक शब्दों में कहा कि महिलाओं के अधिकार के मामले में उसे कानून की संकीर्ण व्याख्या स्वीकार नहीं।
वैसे तो लिव-इन रिलेशनशिप की शुरुआत महानगरों के शिक्षित (?) और आर्थिक तौर पर स्वतंत्र ऐसे लोगों ने की थी जो विवाह की जकड़ से छुटकारा चाहते थे। पर अगर इस रिश्ते पर भी धीरे-धीरे विवाह कानून ही लागू होने लगेंगे तो जिन जकड़नों से लिव-इन रिलेशनशिप के जरिए मुक्ति चाही गई थी, वह मकसद ही खत्म हो जाएगा। ऐसे में शादी और लिव-इन रिश्ते में कोई फर्क ही नहीं रह जाएगा। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कहीं इससे बहु विवाह को प्रोत्साहन न मिलने लगे। एक अन्य अनुतरित प्रशन यह है कि यदि बाल-बच्चों वाला शादीशुदा पुरुष और एक सिंगल महिला लिव-इन रिश्ते में रहते हैं तो ऐसी स्थिति में (पहली) पत्नी की क्या हैसियत होगी? ऐसे में महिलाओं की बराबरी और मुक्ति की घोषणा से शुरू हुए इस रिश्ते का महिला विरोधी रूप उभर कर सामने आ जाएगा।