Friday, May 7, 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप




काफी समय से पुरे संसार में अप्रकर्तिक संबंधों(?), जैसे होमो सेक्स तथा विवाह पूर्व संभंध (लिव-इन-रिलेशनशिप ) पर एक बहस चल रही है. इस के उचित/उनुचित ,कानूनी/गेरकानुनी सामाजिक/असामाजिक, धार्मिक/अधार्मिक होने के संभंध में बहस करने वालो के अपने अपने तर्क हैं. उन का अपना नज़रिया है, जिसे सही/गलत कहना खुद अपने आप में विवादास्पद है. कुछ पश्चिमी देशों ने इसे अपने जीवन मूल्यों के साथ अपना लिया है. पर हमारी सांस्कृतिक मान्यताएं हमें इस अप्रकर्तिक व्यवहार को अपनाने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं है. फिर भी हमारे समाज के बुध्जीवी वर्ग के लोग इस विवाद को अपनी उचित/उनुचित ,कानूनी/गेरकानुनी सामाजिक/असामाजिक, धार्मिक/अधार्मिक की कसौटी पर परख कर अपने खोज पूर्ण निष्कर्षों से सही/गलत साबित करने पर अमादा हैं. यदि उन के तर्कों को पुरी विचारशीलता के साथ परखा जाय तो यह बात स्पस्ट रूप से सामने आजाती है सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर कोई भी निर्णय लेना दुनिया की किसी भी अदालत के लिए संभव नहीं है. कोई भी जज कानूनी, धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को संतुस्ट करते हुए इस संभंध कोई सर्व मान्य निर्णय देने में सक्षम नहीं हो सकता. फिर भी हम इस विषय पर तर्क करने से नहीं चुकते.पर सवाल यह है की अगर हम आधुनिकता के नाम पर इन रिश्तों को अमली जामा पहनाते भी हैं तो तो सदिओं से सहेजे गए हमारी संस्कृति और संस्कारों का क्या होगा
?

कुल मिलाकर यह मसला किसी नैसर्गिक आवश्यकता से नहीं जुड़ा है बल्कि भोगवाद की पराकाष्ठा है कि सार्वजनिक मंच पर भी इस तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं कि लिवइन रिलेशनशिप वक्त और हालात की जरूरत है.वास्तविकता तो यह है की हमारे समाज में कुछ ऐसे अय्याश और भोगीलोग हैं जो तमाम तरह के कुकर्मो में लिप्त रहते हुए भोग के नए-नए साधनों की खोज में ही लगे रहते हैं. इस प्रकार की दूषित स्वतंत्रता के हामी भी वही लोग हैं. हमारे महानगरों में जीवन की एक नई शैली विकसित हो रही है, जिसमें घर-परिवार से दूर लड़के-लड़कियां जॉब कर रहे हों या पढ़ाई, उन्हें अपनी शारीरिक-मानसिक भूख को मिटाने के लिए ऐसे अनैतिक संबंधों की जरूरत पड़ रही है. तमाम लड़कियां नासमझी में और कुछ तो अपनी भौतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए लिवइन का सहारा लेती हैं.

अभी कुछ दिन पहले एक सिने अभिनेत्री की अपील की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन-रिलेशनशिप (होमो या बाई सेक्सुअल) पर जो टिप्पणी की है उससे हम और हमारा समाज


इतना आंदोलित हो गया की इस बात पर चल रही बहस ने एक नया रंग ले लिया। मुख्य न्यायादिश श्री के.जी. बालाकृष्णन की अगुवाई में , जस्टिस दीपक वर्मा और जस्टिस बी.एस. चौहान की तीन सदस्यीय बेंच ने टिप्पणी की है कि अगर दो वयस्क व्यक्ति आपसी सहमती से शादी के बगैर साथ रहते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है। इस में कुछ भी असंवैधानिक नहीं है । किसी के भी साथ रहना व्यक्ति के जीवन का आधारभूत अधिकार है। अपने इस फैसले से माननीय सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 का दायरा बढ़ा दिया है। यह अनुच्छेद हमें अपनी मानवीय गरिमा, आज़ादी और अतम सम्मान के साथ जीने का मूलभूत अधिकार देता है। सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त बेंच ने आगे कहा कहा है कि शादी के पहले या बाद आपसी सहमती से सेक्स संबंध कायम करना कोई अपराध नहीं है। हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो शादी से पहले (या बाद) सेक्स संबंध की मनाही करता हो। इस फैसले का मुख्य विवादित पक्ष राधा - क्रिशन के संबंधों को इस शेणी में लेन से हुआ, जिसे भारतीय जन मानस कैसे भी अताम्सात नहीं कर पाया।

इस फैसले के बाद इस प्रकार के संभंध को कानूनी संरक्षण तो मिल गया पर क्या कोई भी समाज इस बात को सामाजिक या धार्मिक परिवेश में गले से नीचे उतार पायगा?

नहीं ना?

फिर क्यों इस प्रकार के विबादित विषयों पर खामखाँ बहस कर के उन को कानूनी रूप देने का प्रयास किया जाता है. यह सत्य है की समाज और कानून एक दुसरे के पूरक हैं पर इस से यह अर्थ निकालना की किसी बात को कानूनी पजामा पहना कर उसे समाज पर थोपा जा सकता है, उचित नहीं कहा जा सकता. इस से समाज में अनावश्यक बाद विवाद, उलझन और असामाजिकता की स्थिती पैदा हो सकती है. इस बात की ओर न तो कानून को ही देखने की फुर्सत है और न ही उन तथा कथित समाजसुधारकों को, जो इस प्रकार के विवाद के बीज बोते हैं. इन समाजसुधारकों के प्रोत्साहन पर पहले भी कई बार कानून को विवादास्पद निर्णय देने के लिए वाध्य होना परा है. ज़रा देखीये तो -
इस से करीब २ साल पहले 2008 में जस्टिस अरिजीत पसायत और पी. सतशिवम की दो सदसीय बेंच ने काफी समय पुराने के लिव-इन रिश्ते को शादी के बराबर मानने का फैसला दिया था। बेंच ने यह भी निर्णय दिया कि इस तरह के मां-बाप से जन्मे बच्चे वैध माने जाएंगे और उनका अपने मां-बाप की पारिवारिक संपत्ति में भी नियमानुसार अधिकार होगा। उसी साल राष्टरीय महिला आयोग ने भी सुझाव दे दिया था कि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में पत्नी की परिभाषा का दायरा बढ़ाना चाहिए। इस धारा के अनुसार ही पत्नी को पति से गुजारा भत्ता पाने का अधिकार होता है। राष्टरीय महिला आयोग ने मांग की कि लिव-इन रिलेशनशिप में रही महिला को भी उसके पुरुष साथी द्वारा छोर दिए जाने पर उससे गुजारा भत्ता पाने का अधिकार दिया जाना चाहिए।
इससे पहले 2003 में एक अन्य न्यायायिक समिती ने लॉ कमिशन को सुझाव दिया था कि अगर कोई महिला लंबी अवधि से लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही है तो उसे पत्नी के कानूनी अधिकार मिलने चाहिए।

उच्चतम न्यायालय के इन निर्णयों से पहले भी परतंत्र भारत में इस प्रकार के विवादास्पद फैसले होते रहे हैं. 1927 में अँगरेज़ जजों ने एक सिधांत का प्रतिपादन किया था जिसके अनुसार यदि कोई स्त्री - पुरुष पति-पत्नी के तरह एक साथ रहते हैं तो कानून की नजर में वे बिवाहित माने जाएंगे, यहाँ इस बात को संज्ञान में नहीं लिया जायगा की संभंधित महिला उसके साथ रखैल के तौर पर रहती थी। यहाँ एसा प्रावधान भी था की यदि पुरुष यह कहता है की उस महिला की शादी उस पुरुष से नहीं हुई थी, उसे अपनी बात को तथ्यों के आधार पर प्रमाणित करनी होगी।

इस निर्णय के मात्र २ साल बाद ही 1929 में प्रिवी काउंसिल प्रतिपादित किया की कि यदि लम्बे समय तक एक पुरुष और महिला साथ रहते रहे हैं तो कानून उन को विवाहित मानेगा तथा उस महिला को कानूनी पत्नी का दर्जा दिया जायगा न की रखेल।

इन सभी फैसलों को विवादित इस लिए भी माना गया क्यों की कोर्ट ने कहीं भी इस बात की व्याख्या नहीं दी की कितने समय तक समभंद रहने पर ही कोई महिला इन प्रावधानों का लाभ उठा सके गी. काउंसिलने तो मात्र यह व्यस्वस्था दी की "उसे" तो केवल साबुत चाहिए की कोई महिला-पुरुष किसी "अवधि विशेष" तक पति पत्नी के तरह साथ रहे. साथ रहने की अवधि का निर्धारण न हो पाने के कारण कालान्तर में इस का व्यापाक दुरूपयोग इस स्टार तक हुआ की कुछ वेश्याओं ने केवल चन्द दिनों के साथ के आधार पर ही पत्नी होने का दावा कर दिया. आखिर कार एक बारे सामाजिक असंतोष के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर स्थंगन आदेश दिया.

अगर यह अवधि निर्धारित हो भी जाय तो इस बात की
क्या गारण्टी है कि पत्नी का दर्जा मिलने के लिए जितना समय साथ रहना जरूरी है, वह कभी पूरा भी हो पाएगा? निश्चित अवधि पूरी होने के पहले ही स्त्री का भावनात्मक और दैहिक शोषण करके पुरुष यदि किसी दूसरी स्त्री के साथ लिव इन रिलेशनशिप बना ले तब क्या होगा? इससे उलट भी हो सकता है। स्त्री भी पुरुष का दैहिक और आर्थिक शोषण करके उसे कंगाल बना कर निश्चित अवधि से पहले छोड़ सकती है । खतरे दोनों तरफ मौजूद हैं। आज के दौर में उपभोगता वाद अर्थात यूज एंड थ्रो की वृत्ति इतनी प्रबल है कि यह वृत्ति रिश्तों पर भी हावी होती जा रही है। लिव-इन-रिलेशनशिप के हल्ले से पहले लोगों को इस प्रकार के समभंद बनाते समय कानून और समाज दोनों का भय होता था अतः पहले तो व्यक्ति ऐसे संभंध बनाने से ही परहेज़ करता था, अगर किसी ने बना भी लिए तो वोह इन्हें समाज से छुपा कर रखता था पट अब तो लोग पुरी बेशर्मी से कानून का हवाला दे कर हमारी संस्कृति और समाज के मुह पर कालिख पोतने से बाज नहीं आयेगे. इस के अलावा असली कोढ़ में खाज तो हमारा भांड मीडिया है जो अपनी TRP बढ़ाने के चक्कर में इस प्रकार के छिछोरी ख़बरों को भी राष्ट्रीय महत्व की ख़बरों के उपर रख कर इन को अनुचित महत्व दे कर प्रोत्साहित करने में कभी पीछे नहीं रहता.

लिव-इन-रिलेशनशिप को कानून में पहली बार एक पहचान तब मिली, जब घरेलू हिंसा कानून 2005 में महिलाओं को अपने पतियों तथा लिव-इन पार्टनर्स और उनके संबंधियों से संरक्षण प्रदान किया गया। अक्टूबर 2006 में जब यह कानून लागू हुआ तो इसमें शादीशुदा महिला ( विवाहिता) और लिव-इन-रिलेशनशिप (तथा कथित रखेल) वाली महिला में फर्क नहीं किया गया था।

एक मामले में के. सुब्बाराव पर अपने लिव-इन पार्टनर के साथ दहेज के लिए क्रूरता बरतने का आरोप था। बचाव में सुब्बाराव की दलील थी कि भारतीय दंड संहिता की दहेज प्रताड़ना वाली धारा 498 (ए) उन पर लागू नहीं होती क्योंकि लिव-इन पार्टनर से उनकी शादी नहीं हुई थी तथा उनकी शादी किसी दूसरी महिला से हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरिजीत पसायत और जस्टिस ए. के. गांगुली की बेंच ने उनकी दलील ठुकराकर दो टूक शब्दों में कहा कि महिलाओं के अधिकार के मामले में उसे कानून की संकीर्ण व्याख्या स्वीकार नहीं।

वैसे तो लिव-इन रिलेशनशिप की शुरुआत महानगरों के शिक्षित (?) और आर्थिक तौर पर स्वतंत्र ऐसे लोगों ने की थी जो विवाह की जकड़ से छुटकारा चाहते थे। पर अगर इस रिश्ते पर भी धीरे-धीरे विवाह कानून ही लागू होने लगेंगे तो जिन जकड़नों से लिव-इन रिलेशनशिप के जरिए मुक्ति चाही गई थी, वह मकसद ही खत्म हो जाएगा। ऐसे में शादी और लिव-इन रिश्ते में कोई फर्क ही नहीं रह जाएगा। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कहीं इससे बहु विवाह को प्रोत्साहन न मिलने लगे। एक अन्य अनुतरित प्रशन यह है कि यदि बाल-बच्चों वाला शादीशुदा पुरुष और एक सिंगल महिला लिव-इन रिश्ते में रहते हैं तो ऐसी स्थिति में (पहली) पत्नी की क्या हैसियत होगी? ऐसे में महिलाओं की बराबरी और मुक्ति की घोषणा से शुरू हुए इस रिश्ते का महिला विरोधी रूप उभर कर सामने आ जाएगा।


Wednesday, March 31, 2010

एक मज़ाक - नारी स्वतन्त्रता

एक मज़ाक - नारी स्वतन्त्रता





माताओं और बहनों से क्षमा याचना करते हुए निवेदन है की आज कल समाज में एक मानसिकता सी चल परी हैकी नारी और पुरुष को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए. अपनी सवार्थ पूर्ती के लिए सभी राजनीतिक पार्टी केनेता लोग भी जवानी जमा खर्च करने में पीछे नहीं रहते यह बात अलग है की किसी को महिला वोटों की चिंता है तोकिसी को चूल्हे चोके की. पर दिल से तो कोई इस बात को मानता है और ना ही प्रत्यक्ष समर्थन करने को तय्यारहोगा की महिलाओं को समानता का अधिकार मिले. यही कारण है की इतने साल गुजर जाने की बाद भी महिलासशक्ती करण, तथाकथित नारी मुक्ती आन्दोलन और अब महिला विधेयक की गाढ़ी पंचर पढ़ी है. और आगे वक़्तबताएगा की यह खटारा आगे जाय गी भी या अभी कितने साल और इस राजनेतिक चक्रवात में फँसी रहे गी. परइतना तो तय है की नारी भक्त राज नीतिज्ञ तो इस आग को जलने हे देंगे और ही बुझने। क्यों की उन कीस्वार्थसिद्धि इस आग के जलने या बुझने में नहीं केवल सुलगते रहने में है क्योंकी इसी सुलगती आग में हीराजनेतिक रोटी करारी सिकती है। दयनीय स्थिती तो समाज के उस वर्ग (केवल नारियां) की है जिस का उपयोगइस आग को सुलगाए रखने के लिए किया जा रहा है। यहाँ सब से बढ़ी बिडम्बना यह है की महिला समाज का एकप्रमुख वर्ग जिस से अपेक्षा की जाती है की वो महिला समाज का नेत्रत्व करे खुद अपनी रोटियां सकने में व्यस्त है।वेह वर्ग विशेष करे भी क्या? यह हकीकत तो पूरा नेत्रत्व जानता है की मिलना तो कुछ है नहीं तो क्यों ना अपनीरोटियां ही सेक ली जायं ? वास्तव में दयनीय स्थिति तो तब आती है जब ५०-५० रूपए के लालच में औरतें महिलासशक्ती करण, तथाकथित नारी मुक्ती आन्दोलन और महिला विधेयक की मर्ग मारीचिका के समर्थन में सारे दिनधुप में नारे लगाते हुए इस झूंठ को जीती हैं की अब वो पुरुष के बराबर होने योग्य हो गयीं हैं। इन से भी अद्किहादया की पात्र वे हैं को अपनी कार से, घर की बालकनी से या टेलीविज़न के परदे पर ही इस आन्दोलन को देख करखुश हो जाती हैं।

हम एक समाजिक प्राणी हैं और हमारे समाज ने जो हमारे लिए हजारों साल के अनुभव के आधार पर नियम बनाएहैं, यहाँ समाज ने "नियम बनाए हैं " कहना गलत होगा बल्की कहना तो यह चाहिए की प्रकर्ती के बनाए नियमो कासमाज ने तो मात्र अनुमोदन ही किया है की पुरुष हर हाल में नारी से श्रेष्ठ है। अब बेकार की बहस के लिए आप चाहेतो पुरुष और नारी की तुलना शारीरिक रूप से कर ले, मानसिक रूप से या तुलना का अगर आप के पास कोई दूसरापैमाना हो तो उस से कर ले. जब इश्वर ने ही पुरुष को नारी से हर लिहाज़ में श्रेष्ठ बनाया है तो कुछ लोग पता नहींक्यों खामखाँ ही नारी को सर पे बिठा कर प्राकर्तिक संतुलन को बिगारना चाहते हैं. इन में कोई दो राय नहीं हैं कीप्राकर्ति की सुंदरतम रचनाओं में नारी प्रमुख है. हमारे समाज की शत प्रतिशत नारीओं की यह तो हार्दिकअभिलाषा हो सकती है की पुरुष उन की इज्ज़त करे और उन दो दिल में बसाए, पर पुरुष की बराबरी की या उस केसर पर चढ़ने की अभिलाषी खुद नारी समाज की ही अधिक से अधिक - या % ही होंगी. पुरुष पर राज करने याउस की बराबरी करने के लिए पति को परमेश्वर मानने वाली नारी तो सांस्कारिक तोर पर ही तैयार है नामानसिक या शारीरिक तौर पर. किन्ही कारणों से यदि कोई औरत पुरुष पर हावी हो भी जाय तो इस से उस कोकुछ क्षणिक संतोष तो मिल सकता है किन्तु इस से उस का जीवन एक रिक्तता से भर भर जाता है और वो रिक्ततातब तक ख़तम नहीं हो सकती जब तक वो किसी पुरुष के समक्ष खुद को समर्पित कर दे. इन परिस्थितिओं केविरुद्ध नारी भक्त समाज के पास सिवाय कुतर्कों के कोई भी पुख्ता दलील तो है नहीं। लगभग सभी धर्मो में भी पुरुषको ही श्रेष्ठ बताया गया है तभी अनेकों धार्मिक कर्मकांडों पर पुरुष का ही एकाधिकार माना जाता है, और तो औरकई धार्मिक अनुष्ठानो में तो स्त्री का प्रवेश तक वर्जित होता है। इसी प्रकार कानून भी कई क्षत्रों में पुरुष को हीसक्षम मानता है स्त्रिओं को उन क्षत्रों के लिए अयोग्य माना जाता है। समाज ने भी नारी को कई क्षत्रों में प्रतिबंधितकर रखा है। धर्म, कानून और समाज तीनो एक मत हो कर जब पुरुष को श्रेष्ठ बताते तो अपने आप को कानून धर्मऔर समाज से उपर साबित करने की चाह में नारी भक्त अपना कोंन सा स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, यह एक शोधका विषय हो सकता है वास्तव में आज नारी को संरक्षण के आवश्यकता है जिसे कुछ स्वार्थी लोग समानता कानाम दे कर पुरे समाज को गुमराह करना चाह रहे हैं।

नारी सदां से पुरुष की आश्रिता रही है. पुरुष का आदि काल से यह कर्त्तव्य रहा है की वो उस का पालन करे और उसकी रक्षा करे. उस पर किसी भी प्रकार का अत्याचार या अन्याय तो पुरुष श्रेष्ठ को शोभा ही देता है और ना हीकिसी भी परिस्थिती स्वीकार्य हो सकता है. संकट के समय सदां ही नारी, चाहे वो सीता हो या द्रोपदी या सूर्पनखा याफिर आज की कोई भी तथा कथित आधुनिका, पुरुष से ही रक्षा की अपेक्षा करती है।


प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार इन नौ रहस्यों को बाहरी व्यक्ति, नारी, शत्रु, पड़ोसी और राजा पर विशेष परिस्थितों के अलावा प्रकट नहीं करना चाहिए, क्यों की सामान्यतः ये विश्वासी प्रबरती के नहीं होते। ये अपने अज्ञान, दंभ, कपट या स्वार्थ के कारण कभी भी धोका दे सकते हैं।

1. अपनी उम्र।

2. आय-संपत्ति तथा इसे कमाने का ढंग।

3.इन को पारिवारिक समस्याओं में दखलंदाजी करने की इजाजत न दें। इजाजत देने पर आप इन को परिवार का उपहास करने या समाज में प्रसारित करने का मौका दे देते हैं।

4. अंतरंग संबंध के बारे में कभी इन के समक्ष जिक्र न करें। इन के सामने किसी की शिकायत भी न करें। ये आपकी कमजोरियों का दूसरे के हाथ पहुंचा सकते हैं जो आपकी पराजय और दूसरे की जीत का कारण बन सकती है

5. आपको क्या बीमारी है और आप क्या दवा ले रहे हैं, इस बारे में कभी भी खुलासा न करें। ऐसा करने पर ये लोग गलत मशविरा देंगे और बेकार में ही अवांछित लोगों को जानकारी मिलेगी।

6. धर्म और आध्यात्मिक रुझान अथवा राजा के सम्बन्ध में अपने विचार (राजनीती ) के बारे में इन से चर्चा न करें। यह इन बातों को बहस का मुद्दा बना सकते हैं।

7. आपने कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि, पुरस्कार या सम्मान हासिल किए हैं, तो बिना प्रसंग के इन लोगों को न बताएं। व्यर्थ में ऐसा करने से ये लोग आपके प्रति ईष्र्या या नकारात्मक भाव रखना शुरू कर देंगे।

8. जीवन की किसी अपमानजनक घटना का इन के समक्ष खुलासा न करें। खुलासा होने की स्थिति में ये लोग आपका उपहास करने में सब से आगे रहेगे

9. दूसरों ने आप पर विशवास जताते हुए जो राज या रहस्य बताएं हैं, उनका कभी इन के समक्ष खुलासा न करें। यह विश्वासघात कर उसे जनचर्चा का विषय बना सकते हैं ।


यह बात प्रत्यक्ष भी देखने में आती है कि जो स्त्रियाँ स्वत्रन्त्र होकर रहती हैं, वे प्रायः नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। विद्या, बुद्धि एवं शिक्षा के अभाव के कारण भी स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है।
खुद को इस भरम में रखने के लिए के वो भी पुरुष से कम नहीं है कभी कभी बो भी पुरुष के साथ मैदान में कूद तो परती हैं पर जब वास्तविकता से सामना होता है तो वे भी पुरुष सत्ता को स्वीकार कर या तो समर्पण कर देती हैं या सहयोग की याचना करने लगती हैं जब की उन ही परिस्थितिओं में पुरुष खुद लाढ़ता है और अपनी बुधी, विवेक और बल से विजय भी पाता है.
यहाँ नारी भक्त रानी लक्ष्मी बाई, इन्द्रा गांधी और भी इसी तरह की सेंकरो औरतों का उदाहरण देने में पीछे नहीं रहेगे. यहाँ वे यह भूल जाते हैं या नारीभाक्ती में याद ही नहीं करना चाहते की exemption सब जगह होते हैं समाज मेंजो काम केवल एक या दो नारियां ही कर पाती हैं उन को तो नारीभाक्तों ने महिमामंडित कर दिया पर उस से भीहीन परिस्थतियों में कोई पुरुष वो ही काम करता है तो " ये तो उस का फ़र्ज़ है" कह कर पल्ला झाढ़ लेते हैं. क्यों ? यहाँ समानता वाला उन का माप दंड कहाँ चला जाता. वैसे यहाँ समानता वाली बात है भी नहीं यह बिलकुल सत्याहै की पुरुष का तो "यह फ़र्ज़ है ही" पर यदि कोई नारी भी "इसे " कर ले तो उसे शाबाशी तो मिलनी ही चाहिए उस केउत्साहवर्धन के लिए प्रशंशा और शाबाशी ज़रूरी है. पर इस का नारीभाक्तों द्वारा यह मतलब निकालना की इतनेमात्र से ही वो पुरुष के बराबर हो गई उन के मानसिक दिवालियापन का परिचायक नहीं तो क्या है?

आदि काल से ही हमारे पूर्वजों ने पुरी तरह से सोच विचार कर ही एक पुरुष प्रधान समाज की रचना की है, उस कीदूरदर्शिता के कारण ही आज भी हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं उन परम्पराओं का पालन करते हुए फल फुल रहीं हैं. क्या कभी आप ने कल्पना की है की अगर हजारो साल पहले इस बराबरी का मुर्खता पूर्ण विचार हमारे पूर्वजो को जाता तो आज समाज की क्या स्थिति होती. नहीं सोचा ना? तो अब सोच कर देखे, दिमाग का फालूदा बन जायगा और वेह काम करना बंद कर देगा. फिर भी अगर और सोचने का प्रयास किया तो दिमाग का फ्युस उढ जाय गा, कोई नतीज़ा नहीं निकले गा और अगर निकला भी तो कितना विनाशकारी होगा यह लिख पाना तो मुश्किल हैआप खुद ही सोचें.

पहले हमारे समाज को महिलाओं की चिंता नहीं थी या उन के प्रति प्रेम या सम्मान में कोई कमी थी
एसा नहीं है. जितनी चिंता आज महिलाओं की करी जाती है शायाद उतनी ही चिंता हमारे प्राचीन समाज को भी थी. शायद इसी सोच के चलते महिलाओं की सुरक्षा के लिए बाल विवाह तथा सती प्रथा का विकास हुआथा। बचपन सेही नारी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही उन की बागडोर पुरुष को सोंप दी जाती थी तथा पति की म्रत्यु के बादउसे इस कदर निराश्रित मान लिया जाता था की अब उस का कोई रक्षक नहीं है अतः उसे मर जाना चाहिए। अबयह सोच निर्विवाद रूप से मुर्खता की परिचायक मानी जाती है, पर उस समय अगर लोगों की मानसिकता काअध्यन किया जाय तो यह स्पस्ट हो जाता है की इन सब पाशविक और
मुर्खता पूर्ण सोच के पीछे पुरुष वर्ग की कोईदंडात्मक या प्रतिशोधात्मक भावना नहीं रही होगी अपितु उस ने इस प्रकार के नियम नारी की सुरक्षा को द्रस्तीगत रख कर ही किया होगा।प्राचीन समय में पर्दा प्रथा का चलन भी नारी की सुरक्षा को सर्वोपरि मान कर कियागया होगा। हमारे शास्त्रों में भी नारी को लक्ष्मी के स्वरुप में प्रतिस्था दी गई है और यह निर्विवाद सत्य है की लक्ष्मीकी सुरक्षा का दायित्व सदां से पुरुष पर रहा है। समाज में प्रतिष्ठा और विवाद के मुख्य मान दंड ज़र (धन) जनीनऔर नारी ही हैं। यह तीनो ही स्वयं अपनी सुरक्षा करने में सक्षम नहीं होते अतः इन की सुरक्षा का पूरा दायित्व सदांसे ही मर्द का रहा है। इन से कभी भी समाज ने यह अपेक्षा नहीं की की वे अपनी रक्षा खुद करे।

आज भी पुरे संसार का एक बरा वर्ग इस सोच का ही हामी है की नारी का
आजीवन पुरुष के आश्रय में रहना ही खुदनारी के लिए ही नहीं समाज के लिए भी जरूरी है। इसी व्यवस्था के अन्तरगत नारी का बचपन पिता के, यौवन पति के तथा वृधा वस्था पुत्र के आधीन सुरक्षित मानी जाती है।

बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता।
न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किञ्चित् कार्य़ं गृहेव्षपि।।
बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम्।।

(मनु० 5 147- 148)


बालिका, युवती वा वृद्धा स्त्री को भी (स्वतन्त्रतासे बाहरमें नहीं फिरना चाहिये और) घऱों में भी कोई कार्य स्वतन्त्र होकर नहीं करना चाहिये। बाल्यावस्थामें स्त्री पिताके वशमें, यौवनावस्था में पति के अधीन और पति के मर जानेपर पुत्रों के अधीन रहे, किंतु स्वतन्त्र कभी न रहे।’

कुछ अपवादों के अलावा खुद नारी भी इस व्यवस्थाके बाहर अपने को सुरक्षित समझती है। जितनी चिंतित नारी खुद अपनी सुरक्षा से नहिः होती उस से अधिकपुरुष उस की रक्षा को ले कर चिंतित रहता है नारी की इस निश्चिंतता के मूल में यह ही है की उस ने खुद को पुरुषके आधीन मान कर समर्पण कर दिया है और पुरुष को भी गर्व है की वो नारी के स्वाभेमान , सम्मान और नारीत्वकी रक्षा करने ने केवल पुरी तरह से सक्षम है अपितु इस समभंद में उसे नारी का भी पूरा विशवास प्राप्त है

हमारे समाज का एक सर्वे मान्य नियम है की नारी को पुरुष के बराबर में नहीं उस के पीछे चलना है इस नियम का सख्ती से पालन करने और करवाने में भी नारी ही प्रमुख भूमिका निभाती है. इस नियम को तोढ़ने पर भी सब से तीखी प्रतिक्रया भी समाज के इसी वर्गे से ही आती है. क्यों की हज़ारों वर्षों के अनुभव ने आज नारी को इतना समझदार बना दिया है की अब खुद नारी को उस की इस सोच से डिगाना असंभव सा लगता है की वो कभी पुरुष की बराबरी कर सकेगी.

इतना सब होने के बाद भी महज़ कुछ वोटों की खातिर मुठी भर लोग बेचारी नारी को बरगला कर, उस की इक्षा के विरुद्ध पथ भ्रस्त कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं अतः मेरा परम पूज्य माताओं और बहनों से करबद्धनिवेदन है की वो इन मौका परस्त लोगों के बहकावे में ना आये और अपनी बुधि, विवेक, संसकार, अंतर आत्मा कीआवाज़ और
वास्तविक शुभ चिंतकों के परामर्श से ही कोई निर्णय ले क्यों की यह बहुत ही ज्वलंत सामाजिकप्रशन है जिस का अगर आज ही कोई उचित समाधान हम नहीं खोज पाए तो कल शायद यह विष बेल हमारे पुरीसामाजिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर देगी। मुझे अच्छी तरह से मालुम है की मेरेविचार पढ़ने के बाद आप का मन भी आंदोलित हो रहा और आप अपनी प्रतिक्रया देने के इक्षुक होंगे, अब चाहे वोमेरे समर्थन में हो या विरुद्ध पर में आप का स्वागत करूँ गा यहाँ मेरा आप से करबद्ध निवेदन है की आप अपनीप्रतिक्रया ज़रूर दे चाहे वो कैसी भी हो पर प्रतिक्रया देने से पहले अपने दिल परहाथ रखें और मुझ से वायदा करें कीआप की प्रतिक्रया आप के दिल की आवाज़ है जो किसी व्यक्तिगत, राजनीतिक, लैगिक, धार्मिक या सामाजिकपुर्वाग्रह्ह से ग्रसित नहीं है.

बस.

Saturday, March 20, 2010


कुछ लोगों की यह सोच है की पुरे ब्रहमांड में केवल मानव ही सेक्स सिर्फ (?) मजे के करता है, तो हम आपको बताना चाहेंगे कि आप की यह सोच गलत हैं भी नहीं है. यह तो सही है की मानव के अतिरिक्त सभी प्राणी सेक्स संतानोत्पत्ति के लिए ही करते हैं यह बात अलग है की इस से उन को आनंद की भी प्राप्ती होती है फिर भी उन का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पत्ति ही होता है. वास्तव में एक मानव ही है जिस की बुद्धी इतनी विकसित हो गई है की वो सेक्स को संतानोत्पत्ति, सेहत तथा आनंद के रूप में अलग-अलग परिभाषित करने में सक्षम है. जी हाँ यह चोकने की बात नहीं है अपितु एक वेज्ञानिक सत्य है की आनंद के अतिरिक्त सेक्स स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक होता है और अगर हर रोज इसका आनंद मिल जाय तो सोने में सुगंध वाली बात हो जाय. अनिद्रा की स्थिति में तो यह न केवल राम वाण दवा ही है. अपितु इस से मानसिक तनाव भी दूर होता है और शरीर से अतिरिक्त कलोरी भी जलती हैं. सेक्स प्रकर्ति के एक नियामत है, और प्रकर्ति की सम्पूर्ण जीवजगत से यह अपेक्सा होती है की वो इस से विमुख न हो। अगर हम एसा करते हैं तो यह न केवल पूरी तरह से अप्रकर्तिक होगा अपितु एसा कर के हम अपनी पोरी प्रजाति को खतरे में डाले गे। क्या आप ने कभी कल्पना की है की यदि यह जीवजगत केवल ३० वर्ष के लिए ही सेक्स से तोबा कर ले तो प्रथ्वी पर जीवो की संख्या में ८० % की कमी आ जाय गी ।

आइए एक निगाह डालें नियमित सेक्स करने के प्रमाणिक लाभ लाभों पर


अभी कुछ समय पहले ही इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय ने अपनी खोज से यह प्रमानित कर दिया है की, जो लोग हफ्ते में दो से चार बार या ज्यादा सेक्स करते हैं, उनको महीने में एक बार सेक्स करने वालों के मुकाबले हार्ट अटैक का खतरा काफी कम हो जाता है। आम तोर पर देखा गया है की लोग किसी मानसिक परेशानी की स्थिती में सेक्स करने से कतराते हैं, ये गलत है, ऐसा कदापि मत कीजिए। तनाव में सेक्स तो आपके लिए आप के लिए राम वाण दवा का काम करेगा। यह तो खुद आप ने भी अनुभव किया होगा कि सेक्स से तनाव और दर्द दूर करने में मदद मिलती है। वैज्ञानिक तोर पर यह स्थापित बात है की सेक्स के दोरान ऑक्सिटोसिन नामक हॉमोर्न सामान्य से पांच गुना ज्यादा शरीर में प्रवाहित होता है, जिस से शरीर में रक्त संचालन तेज़ हो जाता है और इस से शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है.

डाक्टरों के अनुसार अगर आप तनाब को सेक्स से दूर रखने में सफल हो जाते हैं इस का अर्थ है की आप अपने दिल को एक सामान्य व्यक्ति से १० गुना ज्यादा जवान रखने में सक्षम हैं. नियमित संभंध बनाने से शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक शमता में इजाफा होता है. और शरीर सामान्य सर्दी ज़ुकाम खांसी वायरल बुखार जैसे बिमारिओं का सामना ज्यादा कारगर ढंग से कर सकता है.रोग प्रतिरोधात्मक शमता में इजाफा होने से शरीर की टूटी हुई या बीमार कोशिकाओं की मरम्मत में भी मदद मिलती है।

सेक्स दे दोरान पुरुषों में पुरुसुत्व बढ़ाने वाले हरमोंन - टेस्टस्टेरॉन का स्त्राव बढ़ जाता है जिस से उन में पुरुषोचित गुणों का विकास होता है. और हड्डियों और मॉस पेशेयों को मजबूती बढ़ती हैं. इसी प्रकार महिलाओं में स्त्रीत्व बढ़ाने वाले हरमोंन - एस्ट्रोजन के तीब्र सराब से उन में हृदयाघात की संभावना कम होती साथ ही मूत्र, गर्भाशय जोरों के दर्द बाल झरना तथा त्वचा पर झुर्रिओं जैसी परेशानियों को कम करता है।

सेक्स के समय दिल की धरकन काफी बढ़ जाती है। इससे shareer के सभी अंगों तथा
कोशिकाओं को उच्चा दवाब पर ताजा लहू पहुंचता है। जिस से उन का भरपूर पोशान
होता है, अगर आप ध्यान देंगे, तो पाएंगे कि आप चाहे लाख टेंशन में रहें, लेकिन इसके बाद आपको सुकून भरी नींद आती है। जाहिर है, अगर आपको अच्छी नींद नहीं आ रही और आप इस वजह से परेशान हैं, तो सेक्स को एंजॉय कर सकते हैं। रात को अच्छी नींद आएगी, तो आप ज्यादा स्वस्थ रहेंगे।


आज कल
स्लिम ट्रिम बाडी का क्रेज़ रोजाना बढ़ता जा रहा है, जिसे लोग जिम जा कर या दूसरे उपाय अपना कर वेट कंट्रोल करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं, यहाँ भी आप के लिए एक खुशखबरी है. तमाम अध्यानो से यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि रोजाना सेक्स करने से आपको अपनी फालतू चर्बी कम करने में मदद मिलती है। अगर आप इस को आधा घंटा देते हैं, तो ८० -१०० कैलरी बर्न करते हैं। है ना फायदेमंद आम के आम गुथ्लीओं के दाम. !

फिर भी पता नहीं क्यों हम अपने सेक्स जीवन को गंभीरता से नहीं लेते। कोई
समस्या हो तो भी इन संबंधों को लेकर किसी मनो विज्ञानिक के पास जाना तो हम संबंधों की असफलता की पराकास्था का द्योतक मानते है। परिराम ये होता है की विवाहित जीवन निराशाओं और कुंठाओं से भर जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार कुछ ऐसे संकेत हैं जिन को नजरअंदाज करना आपके आपसी संबंधों पर कुठाराघात करने के सामान है. मैं खुद कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ फिर भी मेरे अनुभव के अनुसार कुछ इसे मानदंड हैं जिन के वारे मैं पुनर्विचार की आवश्यकता है,:


नीम हकीम

हमारे लिए इस से बड़ी विडंबना क्या हो सकती है की हमारी अशिक्षा के कारण हमारे समाज मैं ऐसे पाखंडी लोगों हैं, जो खुद को योंन रोगों का विशेषज्ञ बताते हैं. साथ ही विज्ञापन के द्वारा ( जो भारत मैं पुरी तरह से गैरकानूनी है) अपना प्राचार कर सेक्स से सम्बंधित कई रोगों का ठेके पर इलाज़ करने का दम भरते हैं जब की वे खुद पुर्णतः अशिक्षित या अल्प शिक्षित होते हैं. ये लोग अपने नीम हकीमी ज्ञान के आधार पर ही समाज मैं उलटे सीधे मिथ्स फैला कर हमारी सेक्स अशिख्सा का भरपूर लाभ उठाते हैं. इन लोगों के अनुसार तो कई सामान्य सी बाते जैसे मस्टरबेशन या नाइटफॉल भी किसी कैंसर या एड्स से कम हानिकारक / हल्की बीमारी नहीं हैं और इन का भी "उन" से इलाज़ करवाना बहुत ज़रूरी है. "उन" के दवा खाने की बनी दवा ४५ दिन मैं गारंटी से आप के रोग (जो वास्तव मैं है ही नहीं) दूर कर देगी. मैं तो समझता हूँ की इन बीमारीओं से अधिक हानिकारक तो हमारी सेक्स अशिख्सा है जिस की कारण हम इन सब से विरक्त रहते हैं जिस से इन पाखंडी लोगो का होंसला और बरता है. सरकार या सम्बंधित अजेंसिओं से इन पर रोक की अपेक्षा करना तो बेकार है. इस से बेहतर तो ये होगा की हम खुद ही नींद से जागे और इस प्रकार के विज्ञापनों का प्रतिकार करे. यहाँ इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता की हमारे देश में सुशिक्षित योंन रोग विशेषज्ञ डाक्टरों का आकाल सा है, जिस के कारण न तो इन नीम हकीमों की पैदावार कम करना इतना आसान है और न ही एक आम आदमी को इन के चुंगल से बचाना. सफलता चाहे अपेक्षित न भी मिले फिर भी योंन शिक्षा के महत्वा को नकारा नहीं जा सकता।



अपराध भावना

होश संभालते ही हमें यह समझाया जाता है कि सेक्स संभंधि बिचार रखना भी ब्रहमचर्य नाशक, शर्मनाक अधार्मिक और सामाजिक अपराध है तथा असे लोगों का सामाजिक वहिष्कार करना चाहिए। हम उन लोगों को उदहारण और आदर्श के तोर पर देखते हैं जो अपने सेक्स से सम्बंधित विचारों और इक्षाओं को जान-बूझकर समाज से ही नहीं दबाते शायद खुद से भी छुपाते हैं, वे सम्मानीय और आदर के पात्र होते हैं। यदि कोई नौजवान बालक किसी खूबसूरत लड़की को देखकर किसी काल्पनिक संसार मैं खो जाता है, जो की पुरी तरह से स्वाभाविक है, तो उसे खुद अपराधबोध होने लगटा है। खुद महिला सेक्स की इच्छा जाहिर करने से बेहतर अपने आप को अपराधी मान मरने को भी तैयार हो सकती है, पर इस की अभिव्यक्ती ना बाबा ना .........। बहुदा एसा होता भी है की अगर कोई महिला सेक्स की इच्छा व्यक्त करे, तो उसका पति/समाज उसे गलत समझने में देर नहीं लगता है। इस अनुचित अपराध भावना से मुक्ती के लिए किसी विशेषज्ञ के परामर्श से उत्तम पुनर्विचार की आवश्यकता को मानता हूँ, जो आप को ही नहीं पुरे समाज को इस अपराध बोध से मुक्ति दिला सकता है।



हमारा अज्ञान

कई बार लोगों को यह यह भी स्पस्ट ही नहीं होता कि हमारी वास्तिविक समस्या क्या है? और जब वास्तिविक समस्या का ही भान न हो तो कब और किस से क्या कंसल्ट किया जाय इस बात का निर्णय कैसे हो सकता है? उदाहरण के लिए कभी कभी महिलाओं को जनन अंगों से संबंधी कोई समस्या होती है या कोई मूत्र विकार होता, तो उन की प्राथमिकता कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ होता है, पर अक्सर देखा गया है की स्त्रिओं में ये समस्या किसी शारीरिक विकार से नहीं अपितु मनोविज्ञानिक कारणों, जिन में पति पत्नी के आपसी , पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में सामंजस ना होना प्रमुख है, इन परिस्थितीयों मैं बेचारा स्त्री रोग विशेषज्ञ असहाय हो जाता है और उसे मरीज़ की नाराजी से बचने या अपनी फीस की खातिर मरीज़ को कई गेरज़रूरी दवाएयाँ लिखनी परती हैं जो मरीज़ को
लाभ से ज्यादा आर्थिक और शारीरिक नुक्सान पहुंचा सकती हैं. बेहतर तो यह है की इस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए किसी प्रशिक्षित रति रोग मनोविज्ञानिक (सेक्स थेरेपिस्त ) से मश्बरा किया जाना चाहिए. वो ही इस का सही विश्लेषण कर के समस्या का सही निदान कर सकता है।



अक्सर देखा गया है की लोगों की सेक्स के वारे में सब से प्रमुख समस्या होती है की उन के साथी का व्यवहार उपयुक्त समय पर सहयोगात्मक नहीं होता. अन्तरंग क्षणों के लिए किसे प्रस्ताव रखना चाहिए और किसे उस का अनुमोदन करना चाहिए? अन्तरंग क्षणों की पूर्व क्रीडा के लिए कितना उपयुक्त समय होना चाहिए जिस से दोनों ही प्रतिभागी आनंदित हो और किसी को भी ऊब का अहसास न हो? पूर्व क्रीडा के बाद मुख्य काम क्रीडा में कोंन अधिक सक्रिय रहेगा और कोंन कम? काम क्रीडा की न्यूनतम आब्रती क्या होनी चाहिए? से साब निर्विवाद रूप से ज्योलंत समस्याए हैं जिन का समाधान तो सब चाहते पर इन का निदान कोई बहारी व्यक्ती करे ये तो शायद कोई भी नहीं चाहे गा. व्यक्ती के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ के लिए यह भी अतिआवश्यक है की इन सब समस्याओं का हल निकले।



यहाँ पर यक्ष प्रशन है - पर कैसे?



मेरे विचार से तो इस का एकमात्र समाधान ये है की दोनों पक्ष साथ बैठ कर आपसी विचार विमश से इस का हल निकाले. क्यों की यही एकमात्र रास्ता है इस लिए या तो अपनी खुशी से इसे अपना कर शांती पूर्वक जीवन यापन करे या आजीवन एक दोसरे पर दोषारोपण करते हुए अपना शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्वास्थ चोपट कर ले. फिर अंत में आप को किसी चिकित्सक की नहीं वकील की ही ज़रुरत रह जायगी

इस के अलावा एक और समस्या है वो है अप्रकर्तिक योंन आनंद प्राप्त करने की चाह. अब जो वास्तु या सुख अप्रकर्तिक है उसे अप्रकर्तिक ही माना चाहिए. ये तो हम सब ही जानते हैं की की प्रकर्ती अपने विरुद्ध बहुत ही कम चीज़ों को बर्दास्त कर पाती है. इस लिए उत्तम तो यही है की हम "उस" के बनाए नियम से बांध कर ही चले और अप्रकर्तिक योंन आनंद प्राप्त करने की चाह से बचे, फिर भी हम मानव सुलभ जिज्ञासा के कारण हमेशा से ही "वर्जित फल" के प्रति आकर्षित रहे हैं और इतिहास गवाह है की हम ने उसे चखा भी है. इस लिए मेरे विचार से ज्यादा बुराई तो इस फल मैं भी नहीं है यदि इसे आपसी सहमती और स्वीकृती "चखा" जाए, बाकी आप खुद समझदार हैं

एसा भी होता है की कोई पुरुष/महिला काम क्रीडा के दोरान अपने सहभागी को पुरे तरह से संतुस्ट नहीं कर पाता. इसी परिस्थिति मैं पहले तो बिना किसी संकोच के आपस में ही इस का समाधान निकलना चाहिए. अगर समाधान न भी निकले तो कम से कम यह तो निर्धारित करने का प्रयास करना चाहिए की आप की समस्या मनोविज्ञानिक है या चिकित्सीय. मेरा विशवास करे की इस प्रकार के ८०% से अधिक मामलो में समस्या मनोविज्ञानिक होती है जिसे आपसी समझदारी से बिना किसी खर्च के ठीक किया जा सकता है. अगर आप किसी मनोविज्ञानिक के पास जाते भी हैं तो वो भी कोई दवा तो देगा नहीं वो भी आप को आपके आचार विचार में सुधार लाने को कहे गा. यह तो आप खुद भी अपने बुधि विवेक और आपसी विचार विमश से कर सकते हैं. १५ दिन इस नुस्खे को आजमा कर देखे लाभ ज़रूर होगा।



विवाह एक सामाजिक आवशकता

हमारे परिवेश/समाज में विवाह की ज़रूत केवल वासना पूर्ती के लिए ही नहीं मानी जाती अपितु इसे एक धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारी के रूप में जाना जाता है. हमारे समाज में भी कुछ लोग विभिन्न कारणों से विवाह पूर्व सम्बन्ध रखते हैं ये धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक ही नहीं कानूनी अपराध की श्रेणी में आते हैं. हालांके सम्बंद्कित व्यक्ती इस के समर्थन में अपनी अपनी दलीलें देते हैं, पर इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं मना जा सकता है. कुछ स्थितिओं में यदि सम्बंधित व्यक्ती शादी के बाद इस से तौबा कर ले तो उस क्षमा किया जा सकता है. पर कुछ स्थितिओं में जब इस प्रकार के सम्बन्ध व्यक्ति विशेष की मजबूरीबन जाय और वो दिल से चाहता की इस क्लेश से निकले तो उसे मनोविज्ञानिक, डाक्टर या पुलिस से से मिलने में झिझक महसूस नहीं करनी चाहिए अनेतिक संबंधों की श्रेणी में कई और भी सम्बन्ध आते हैं इन के वारे में किसी भी प्रकार मुगालता पालना हानीकारक है हमें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिए की सेक्सुअलिटी में भी बाइसेक्सुअलिटी और होमोसेक्सुअलिटी जैसी कई अंधेरी गलियां होटी हैं। इन में गुम होने से बेहतर इन से बच के निकलना है. .

यह एक परम सत्य है की सेक्स एक नितांत व्यक्तिगत विषय है तथा इस मैं हर एक की अपनी अलग प्राथ्मिक्ता, पसंद व् स्वाद हो सकता है. इस लिए इस विषय में किसी को कोई राय देने वाला (मेरे समेत) अकल्मन्द तो हरगिज़ नहीं कहलायगा, हाँ राय लेने वाला जिज्ञासु या अकल्मन्द ज़रूर हो सकता है. वास्तव मैं सेक्स के संभंध में बिस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु होना, अज्ञानता वश किसी अपराध भावना या हीन भावना से ग्रसित होने से लाख गुना बेहतर है. यह भी ज्ञान का एक गहरा समंदर है जिस पर हमारे ऋषी मुनिओं और पुरखों ने शास्त्रों तक की रचना कर दी है. तो हम खुद को या अपने समाज को इस से वंचित कैसे रख सकते हैं. इस सम्बन्ध में और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपसी विचार विमश, नियंत्रित मन से आत्म चिंतन, स्तरीय साहित्य का अध्यन, अथवा किसी ज्ञानी या सेक्स विशेषज्ञ से सलाह करने की भावना को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए

Wednesday, March 17, 2010


हज़ार साल जियो





होली पर में ताऊ जी से मिलने गया. जब मेने उन के चरण स्पर्श किये तो उन ने मुझे आशीर्वाद दिया " हज़ार साल जियो " सुन कर में खुश हो गया. लेकिन बाद में जब मेने सोचा की अगर ताऊ जी काआशीर्वाद सच में सच्चा साबित हो गया तो इतने साल तक में करूँ गा क्या? और उन ने आशीर्वाद में ये तोक्लीअर किया नहीं की जियूं कैसे. आज के इस दौर में ६०-७० साल जीना भी चाँद पर जाने से अधिककठिन है तो फिर १००० साल की तो सोच के ही पुरे शरीर में झुरझुरी सी आ जाती है.

प्रश्न १००० साल जीने का नहीं है प्रश्न तो यह है की जिया कैसे जाय? क्या दुनिया ने कुछ कर दिखाने केलिए लम्बी उम्र ही सब कुछ होती है? कम से कम मैं तो एसा नहीं समझता. अभी कुछ माह पहले ही कैलाशी काका तकरीबन ९५ साल के हो कर मरे, पर आज जब कोई उन का ज़िक्र करता है तो सुनने वाला अक्सर यह पूंछ लेता है की कोंन कैलासी? आज उन को मरे ६ महीने भी नहीं हुए की समाज/लोगों उन को बिसरा दिया. और फिर क्यों न समाज उन को भुला दे आखिर किया भी क्या उन्हों ने अपने ९५साला जीवन में? अपने परिवार को ही तो पाला, इस में नया क्या है? सब पालते हैं. समाज के लिए क्या किया? अगर वो १०-२०-५० साल और भी जी लेते तो भी क्या कर लेते? इतने साल धरती kaa    बोझ बढ़ाने या १०-२० मन अनाज खाने के अलावा शायद वो कुछ कर भी नहीं सकते थे, हकीकतन वो इतने सक्षम हीनहीं थे की अपने स्वार्थ से हट कर समाज को कुछ देने का प्रयास भी करते. इस का दोष अकेले उन कोदेना उन के साथ अन्याय करना है. हम सब ही तो इन्ही के जैसे है. अगर अपने गिरेबान में झांकें तो हमपायं गे की हम सब ही नहीं हमारे स्वर्गीय पूर्वज भी कैलासी काका से कोई अलग तो नहीं हैं. यहाँ पर में स्पस्ट करना चाहूँगा की मेरा उद्देश्य स्वर्गीय पूर्वजों का या उन के द्वारा छोरी गयी विरासत का अपमान करना हरगिज़ नहीं है. पर हे भी निर्विवाद सत्य है की मेरे पूर्वज जो भी छोढ़ गए वो मेरे लिए है उस सेसमाज या देश का कोई हित तो होने वाला नहीं है, फिर क्यों ये समाज उन को याद रखे? में भी जो छोरकर जाऊं गा वो मेरे परिवार के लिए होगा देश या समाज को तो उस में से फूटी कोढ़ी भी नहीं मिले गी. फिर अगर में समाज से ये अपेक्षा करता हूँ की मेरे मरने के बाद मुझे याद रखे तो ये मेरी भूल होगी.

हम सब को बहुत अच्छी तरह से पता है की हम एक मुसाफिर की तरह से हैं जो दुनिया के प्लेटफार्मअपनी गाढ़ी (मौत) का इन्जार कर रहा है. किसी की ट्रेन जल्दी आ जाती है और किसी की देर में आती है. पर जिस की भी ट्रेन आजाती है वो चला जाता है. प्लेटफ़ार्म पर शायद उस का कोई निशाँ बचता है. हाँ, पर जिस की भी ट्रेन ज्यादा देर से आती है वो प्लेटफार्म पर कुछ न कुछ गन्धगी जरूर छोर जाता है. यहाँमें अपना ही उदाहरण देता हूँ - एक बार मुझे सपरिवार कहीं जाना था ट्रेन ४ घंटे लेट हो. अतः मेरी पत्नीने प्लेटफार्म पर चादर बिछा दी हम सब वहीं पर बैठ गए. कुछ देर बाद मेरे पुत्र ने खाने की फ़र्माएश कीतो पत्नी ने कागज़ की प्लेट में पुरी सब्जी निकाल कर उसे देदी. देखा देखी मेने भी माग लिया. मुझे देने केबाद उस ने खुद भी ले लिया. नतीजतन ३ कागजी पलट ३ गिलास १ पानी की खाली बोतल और एक पूराअखबार और काफी सारी जूठन फिकने को तैयार थी. तभी अचानक ट्रेन आ गई. हम ने चादर औरसामान समेटा और ट्रेन में बैठ गए. आज जब में यह लेख लिखने बैठा तो अचानक मुझे यह वाकया यादआ गया और में सोचता हूँ की अगर में प्लेटफार्म पर इतनी देर रुक कर ट्रेन का इंतज़ार नहीं करता तोमेने वहां इतनी गन्धगी भी नहीं छोडी होता. शायद गन्धगी फैलाते समय में यह भूल गया था की जब ट्रेन (मौत) आयेगी तो मुझे अपनी फेलाई गन्धगी ( अपने पापों ) को समेटने का समय नहीं मिलेगा खेर मैं तो चला गया पर अब मुझे मालूम है की मेरे जाने के बाद जो भी वहां से गुजरा होगा वो ही मेरी फैलाई गन्धगी पर थूक कर ही गया होगा. वहां से जाने के बाद अब में सोचता हूँ की मेरे प्लेटफार्म पर रुकने सेजीने से) स्टेशन को (दुनिया को) क्या लाभ हुआ? अपने जाने (मरने) के बाद मेने अपने सह्यात्रिओंसमाज) को अपने वारे में सोचने के लिए क्या दिशा दी? ( ( ( 

यहाँ यह स्पस्ट हो जाता है की कुछ करने के लिए लंबा जीवन जरूरी नहीं होता. विवेकानंद,अभिमन्यु, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव या चंदर शेखर आज़ाद कितने साल जिए थे? इन सभी को तो ३ दशक सेज्यादा जीवन भी नहीं मिला, जीने के लिए. अगर इन में से भी बाल्यावस्था का ढेर दशक निकाल दे तो इन का कार्यशील जीवन मात्र १० - १२ साल ही बचता है, अभिमन्यु का तो इतना भी नहीं बचा. पर फिरभी इन की उपलब्धीयों के वारे कोई प्रशन चिन्ह नहीं लगा सकता. क्योंकी यहाँ जीवन की अवधी औरसार्थकता की चर्चा हो रही है अतः इन की उपलब्धीयों के वारे यहाँ पर चर्चा करना विषय वास्तु सेभटकना होगा.

कहने का अभिप्राय स्पस्ट है की जीवन की सार्थकता जीवन के लंबा होने से अधिक जीए गए जीवन शैली में है. सार्थक जीवन वही कहलाता है जिस जीवन को स्वार्थो से परे हट कर दूसरों के लिए जिया जाय. जब यह बात हमारी समझ में आजे गी तब ही हम निस्वार्थ, परोपकारी और चिर्स्मार्नीय जीवन शैली अपना सके गे और अपने से छोटों को लम्बे और सार्थक जीवन का अंतर समझा कर उन्हें एसा जीवनजीने की प्रेरणा दे सकें गे जिसे लोग सदिओं तक याद रख सकें.

Monday, March 15, 2010

नव बर्ष शुभ हो

चेत्रा शुक्ल प्रतिपदा
अर्थात
भारतीय नव वर्ष

विक्रमी संवत २०६७ का शुभ आरम्भ ( March 16th 2010)

भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है. येही संस्कृति समाज में हर्ष उल्लास जागाते हुए हमें एक सही दिशा प्रदान करती है, जिसे हम समय समय पर उत्सव के रूप में मना मना कर अपनी संस्कृति के प्रणेताओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं. अपने स्वाभिमान और रास्त्र प्रेम को जागाने वाला एसा ही प्रसंग आता है चेत्रा मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को जिस दिन से हमारा हिन्दू नव वर्ष प्रारम्भ होता है.

आइये इस दिन की महानता से सम्बंधित प्रसंगों को देखते हैं :-

१. यह दिन काल गरना का प्रथम दिन है, अर्थात इस दिन सूर्योदय के साथ ही ब्रहमा जी ने स्रष्टी की रचना प्रारंभ की थी.
२. बिक्रमी सम्बत का प्रथम दिन - कहा जाता है की उसी राजा के नाम पर सम्बत प्रारम्भ करने का प्रावधान है, जिस के राज्य में कोई दींन दुखी न हो, कोई चोर या अपराधी न हो, किसी भी नागरिक को किसी दुसरे से या राजा से कोई शिकायत ना हो तथा जो चक्रवर्ती राजा हो. इसे ही राजा विक्रमादित्या का राज्याभिषेक इसी दिन २०६७ बर्ष पूर्व हुआ था
३. मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अपने राज्याभिषेक के लिए चुना था.
४. नवरात्रि स्थापना : शक्ति और भक्ति के ९ दिन अर्थात नवरात्री स्थापना का पहला दिन भी यही है. यही दिन प्रभु राम के जनम दिवस के नौदिव्सीय उत्सव का प्रथम दिन भी है.
५. सिख संप्रदाय के द्वतीय गुरु श्री अंगद देव का प्रकाटोत्साब (जन्म दिवस) भी इसी शुभ दिन होता है.
६. मानव सामाज को श्रेष्ठतम मार्ग पर ले जाने के लिए आर्या समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्या समाज की स्थापना की थी.
७. सिंध प्रान्त के प्रसिद्द समाज रक्षक वरुनावातार संत श्रोमणी झुलेलाल ने भी इसी पवित्र दिन भूलोक पर प्रकट हो कर हमें कृतार्थ किया था.
८. राजा विक्रमादित्या की भांति शालीनवाहन ने हूणों को परस्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित कर आज के ही दिन से शालीनवाहन संवत्सर का शुभारम्भ किया था
९. ५११२ वर्ष पूर्व युदिश्थिर राज्याभिषेक के साथ ही आज के दिन से ही युगाब्द संवत्सर का शुभारम्भ हुआ था

प्रकर्ति भी इस अवसार पर आनंदित हो आशीर्वाद स्वरुप हमारा साथ देने को वातावरण वसंत यानी उल्लास, उमंग और पुष्पों की सुगंध से भर देती है. यही वो समय है जब इश्वर किसानो को उन की महेनत का प्रतिफल दे कर उपकृत करता है.

क्या १ जनवरी के साथ एसा एक भी प्रेरणा दायक प्रसंग जुरा है, जो हमारे मन में स्वाभिमान देशप्रेम या श्रेष्ठता का भाव पैदा करने में सक्षम हो?

आज देश करबत बदल रहा है. सदिओं की निद्रा को दूर कर हिन्दू समाज भी अंगराई ले रहा. हिन्दू की परिभाषा में वे सभी लोग आते हैं जो भारत माता को अपनी माता, देश में महापुरषों को अपना पूर्वज तथा देश की संस्कृति के मूल तत्वके आगे नत मस्तक हैं.

सत्य एक है, पर उसे लोग भिन्न भिन्न नामो से जानते हैं. जिस प्रकार उस के नाम भिन्न भिन्न हैं उसी प्रकार परम सत्य तक पहुचने के मार्ग भी अलग अलग हैं. वे सभी मार्ग सत्य हैं आवश्कता केवल उन में से किसी एक मार्ग को चुन कर उस पर पुरी सत्य निष्ठा के साथ चलने की है. आज आवश्कता इस बात की है की हम सब साथ चले, अपने अपने रास्ते पर चले, अपनी संस्कृति का पालन करे, एक दूससरे का स्सह्योग करें अपने हिन्दू होने का गर्व करे तभी हम दुनिया में अपनी पताका सब से ऊँची फहरा सकें गे.

आओ हम सब मिल कर अपने हिन्दू होने पर गर्व करे


नव बर्ष शुभ हो

Friday, March 5, 2010

मुझे गर्व है की मैं हिन्दू हूँ

कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र ने मुझे अपना निम्न लिखित यात्रा ब्रतांतसुनाया जिसे सुन कर एक बार फिर मुझे गर्व हुआ की मैं हिन्दू हूँ
*WHY I AM A HINDU - MUST READ*

It is a slightly lengthy article but is quite interesting to read

*Four years ago, I was flying from JFK NY Airport to SFO to attend a meeting at Monterey , CA. An American girl was sitting on the right side, near window seat. It indeed was a long journey - it would take nearly seven hours. *
*I was surprised to see the young girl reading a Bible unusual of young Americans. After some time she smiled and we had few acquaintances talk. I told her that I am from India*
*Then suddenly the girl asked: 'What's your faith?' 'What?' I didn't understand the question..*
*'I mean, what's your religion? Are you a Christian? Or a Muslim?'*
*'No!' I replied, 'I am neither Christian nor Muslim'. Apparently she appeared shocked to listen to that. 'Then who are you?' 'I am
a Hindu', I said.*

*She looked at me as if she was seeing a caged animal. She could not understand what I was talking about.*
*A common man in Europe or US knows about Christianity and Islam, as they are the leading religions of the world today. But a Hindu, what?.*
*I explained to her - I am born to a Hindu father and Hindu mother.

Therefore, I am a Hindu by birth.*
*'Who is your prophet?' she asked.*
*'We don't have a prophet,' I replied.*
*'What's your Holy Book?'*

*'We don't have a single Holy Book, but we have hundreds and thousands of philosophical and sacred scriptures,' I replied.*

*'Oh, come on at least tell me who is your God?'*

*'What do you mean by that?'*

*'Like we have Jesus and Muslims have Allah - don't you have a God?'*

*I thought for a moment. Muslims and Christians believe one God (Male God) who created the world and takes an interest in the humans who inhabit it. Her mind is conditioned with that kind of belief.*

*According to her (or anybody who doesn't know about Hinduism), a religion needs to have one Prophet, one Holy book and one God. The mind is so conditioned and rigidly narrowed down to such a notion that anything else is not acceptable. I understood her perception and concept about faith. You can't compare Hinduism with any of the present leading religions where you have to believe in one concept of god.*

*I tried to explain to her: 'You can believe in one god and he can be a Hindu.. You may believe in multiple deities and still you can be a Hindu. What's more - you may not believe in god at all, still you can be a Hindu. An atheist can also be a Hindu.'*

*This sounded very crazy to her. She couldn't imagine a religion so unorganized, still surviving for thousands of years, even after onslaught from foreign forces. *

*'I don't understand but it seems very interesting. Are you religious?'
What could I tell to this American girl? *

*I said: 'I do not go to temple regularly. I do not make any regular rituals. I have learned some of the rituals in my younger days. I still enjoy doing it sometimes.'*

*'Enjoy? Are you not afraid of God?'*

*'God is a friend. No- I am not afraid of God. Nobody has made any compulsions on me to perform these rituals regularly.'*

*She thought for a while and then asked: 'Have you ever thought of converting to any other religion?'*

*'Why should I? Even if I challenge some of the rituals and faith in Hinduism, nobody can convert me from Hinduism. Because, being a Hindu allows me to think independently and objectively, without conditioning. I remain as a Hindu never by force, but choice.' I told her that Hinduism is not a religion, but a set of beliefs and practices. It is not a religion like Christianity or Islam because it is not founded by any one person or does not have a single organized controlling body like the Church or the Order, I added. There is no single institution or authority. *

*'So, you don't believe in God?' she wanted everything in black and white. *

*'I didn't say that. I do not discard the divine reality. Our scripture, or Sruthis or Smrithis - Vedas and Upanishads or the Gita - say God might be there or he might not be there. But we pray to that supreme abstract authority (Para Brahma) that is the creator of this universe.'*

*'Why can't you believe in one personal God?'*

*'We have a concept - abstract - not a personal god. I don't think that God wants others to respect him or fear him.' I told her that such notions are just fancies of less educated human imagination and fallacies, adding that generally ethnic religious practitioners in Hinduism believe in personal gods. The entry level Hinduism has over-whelming superstitions too. The philosophical side of Hinduism negates all superstitions. *

*'Good that you agree God might exist. You told that you pray. What is your prayer then?'*

*'Loka Samastha Suk ino Bhavantu. Om Shanti, Shanti, Shanti,'*

*'Funny,' she laughed, 'What does it mean?'*

*'May all the beings in all the worlds be happy. Om Peace, Peace, Peace.'*

*’Hmm..Very interesting. I want to learn more about this religion. It is so democratic, broad-minded and free' she exclaimed. *

*'The fact is Hinduism is a religion of the individual, for the individual and by the individual with its roots in the Vedas and the Bhagavad-Gita। It is all about an individual approaching a personal God in an individual way according to his temperament and inner evolution - it is as simple as that.'* *anybody convert to Hinduism?'*
*'Nobody can convert you to Hinduism, because it is not a religion, but a set of beliefs, practices and a way of life and culture. Everything is acceptable in Hinduism because there is no single authority or organization either to accept it or to reject it or to oppose it on behalf of Hinduism.'*

*For a real seeker, I told her, the Bible itself gives guidelines when it says ' Kingdom of God is within you.' I reminded her of Christ's teaching about the love that we have for each other. That is where you can find the meaning of life.*

*Loving each and every creation of the God is absolute and real. 'Isavasyam idam sarvam' Isam (the God) is present (inhabits) here everywhere - nothing exists separate from the God, because God is present everywhere. Respect every living being and non-living things as God. That's what Hinduism teaches you.*

*Hinduism is referred to as Sanathana Dharma, the eternal faith. It is based on the practice of Dharma, the code of life. The most important aspect of Hinduism is being truthful to oneself. Hinduism has no monopoly on ideas.- It is open to all. Hindus believe in one God (not a personal one) expressed in different forms. For them, God is timeless and formless entity.*

*Ancestors of today's Hindus believe in eternal truths and cosmic laws and these truths are opened to anyone who seeks them. But there is a section of Hindus who are either superstitious or turned fanatic to make this an organized religion like others. The British coin the word 'Hindu' and considered it as a religion.*

*I said: 'Religions have become an MLM (multi-level- marketing) industry that has been trying to expand the market share by conversion. The biggest business in today's world is Spirituality. Hinduism is no exception'*

*I am a Hindu primarily because it professes Non-violence - 'Ahimsa Paramo Dharma' - Non violence is the highest duty. I am a Hindu because it doesn't conditions my mind with any faith system.

A man/ woman who change 's his/her birth religion to another religion is a fake and does not value his/her morals, culture and values in life. Hinduism was the first religion originated. Be proud of your religion and be proud of who you are.
Om Namo shiva……………*

Tuesday, February 23, 2010

लानत है, मेरे जैसे पढ़े लिखे लोगों पर. जो विदेशी संस्कृति से इतने प्रभावित हैं की उस की चकाचोंध मैं अपने नैतिक मूल्यों, परम्पराओं, आदर्शों को ही नहीं बल्की उन शहीदों को भी भूल गए जिन के त्याग और बलिदान के कारण ही आज हम इस काबिल हैं की हमें एक आज़ाद देश में सांस लेने का अवसर प्राप्त हो रहा है. ये हमारा दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है की आज हम सब को अच्छी तरह पता है की विदेशी संस्कृति के प्रतीक वेलंटाइन डे, रोज़ डे, हग दे और चोकलेट दे कब - कब होते हैं. बैसे अगर कोई भूल भी जय तो हमारा भोंपा शंकर इलेक्ट्रोनिक / प्रिंट मीडिया इन त्योहारों के ३६४ दिन पहले से याद दिलाना शरू कर देता है, स्कूल मैं पढ़ा सब ने होगा पर शायद यह बहुत कम लोगों को याद होगा की अमर शहीद भगत सिंह, सुख देव और राज गुरु का शहीद दिवस कुछ दिन बाद २३ मार्च को आने वाला है . इसी दिन सन १९३१ मैं बर्बर अंग्रेजों ने, खुद ही अपने बनाइ क़ानून से खिलवार करते हुए समय से पहले ही तीनो को फांसी पर चढ़ा कर अपनी कायरता का परिचय दिया था. ये सब याद रखने का आज कल फैशन नहीं है .

दुसरे को क्या दोष दूँ? खुद मेरे पास समय नहीं है की मैं इन शहीदों को याद करूँ. अभी मुझे अखवारों में देखना है किस नंगे बम्बैया को अमरीका में फिर नंगा किया गया? किस बम्बैया की प्रेमिका की चोली का हुक खुला? राहुल बाबा का अगला कृपा पात्र कोण दलित बने गा या सोनिया जी का मिजाज़ कैसा चल रहा है?

शायद आप के पास समय हो तो कृपा का के इन महान शहीदों की याद में अपने कम से कम १० मित्रों को SMS भेज कर इन शहीदों की याद दिला दिला कर अपनी श्रद्धांजली दे साथ ही उन से निवेदन करें की वे आप के SMS को आगे कम से कम १०-१० लोगों को भेज कर रास्त्र के लिए उन के द्वारा किये गए बलिदान के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करें. अगर SMS में पैसे ना खर्च करना चाहें तो भी कोई बात नहीं, http://www.way2sms.com/ पर लोग कर के मुफ्त SMS भेजें।


On 23.3.31 morning legendary BHAGAT SINGH, RAJGURU & SUKHDEV were hanged to deth. But today we dont rember their Names even. Pl Forward it to UR 10 Friends-- RegardsDikshit Ajay K