Monday, September 10, 2012

दर्शक तो वेवकूफ हैं

आज कल टेलीविजन के लगभग सभी चेनलों पर एक बीमारी से चल पढ़ी है की वे अपने नाटकों में उल्टी सीधी घटना दिखा कर उन का क़ानून  से  बालात्कार यह सोच कर करवाते हैं की दर्शक तो वेवकूफ हैं उन में पल्ले की अक्ल  तो होती नहीं है उन को तो जो मर्जी हो परोस दो वो तो बेचारे ताली बजाने के लिए वाध्य हैं. लीजिए आप भी मुलाहिजा फ़र्माएअ उन नाटकों का जिन में निर्देशकों ने स्वयं मूर्खता की पराकाष्ठता को पार कर के पता नहीं दर्शकों से अपेर्क्षा की है-

एक चेनल ने दिखाया की नाटक की नायिका के पती की कुछ लोग सरे आम    नायिका के सामने ही ह्त्या कर ने का प्रयास करते  हैं, इस घटना से उत्तेजित हो कर  नायिका उन हत्यारों का प्रतिरोध करती है. इस प्रतिरोध के दौरान वेह इतनी उत्तेजित हो जाती है की  उस के हातों हत्यारे का वध हो जाता है. इस पूरी  घटना के चशमदीद गवाह  आम जनता के साथ कई T V चेनलों रिपोर्टर भी होते हैं, जो बहुत ही हेरातंगेज ढंग से इस घटना की रिपोर्टिग करते हैं और दिखाते हैं के किस प्रकार एक औरत ने सरेआम एक आदमी की क्रूरता पूर्वक ह्त्या कर दी (लानत है T V चेनलों की असी रीपोर्टिग  पर). बे सभी इस बात को कतई नज़रन्दाज़   कर देते हैं  की  नायिका एक सामान्य से महिला है जो सामान्य परिस्थितियों में किसी आदमी पर आक्रमण तो क्या उस से बात करने का भी प्रयास नहीं कर सकती. ऐसी महिला ने बीच सड़क पर एक आदमी का वध  किया, यह तो सत्य है, पर क्यों किया इस पर निर्देशक ने न तो रिपोर्टरों को गोर करने दिया और न ही अदालत को. सड़क पर मौजूद चशमदीद गवाहों और देश में मौजूद महिला संगठनों को तो अपनी सुविधा के लिए निर्देशक ने विल्कुल ही नकार दिया. और अंत में अदालत भी अविश्वश्नीय रूप (ह्त्या के प्रयास के लिए शायद कम सज़ा का प्रावधान है) से इस नायिका को १८ साल की जेल की सज़ा देदेती है. 

एक और घटना मुलाहिजा फ़र्माएअ- एक शहर का टॉप वकील. उस को अलग अलग  केस में एक नौसिखिया वकील दो बार धुल चटाता है. उस से बदला लेने के लिए टॉप वकील नौसिखिया वकील  को अपने बेटे की ह्त्या के केस में फसा देता है. किन्तु आखिर तक मकतुल की लाश की प्रोपर ढंग से शिनाख्त नहीं की जाती, नाटक में यह स्पस्ट दिखाया जाता है की मरने वाला तो वकील का बेटा था ही नहीं. नौसिखिया वकील अपना  केस तो लड़ता है किन्तु लाश की शिनाख्त पर कतई जोर नहीं देता, जो की किसी ह्त्या के केस की सब से महत्वपूर्ण कड़ी होती है. अंत में किन्हीं भावनात्मक कारणों से नौसिखिया वकील की पत्नी अदालत में उस ह्त्या को कुबूल कर लेती है जो वास्तव में हुई ही नहीं और और उसे सज़ा हो जाती है. 

यह  तो केवल बानगी भर है हमारे टी वी चेनलों पर तो जो हो जाय वो भी कम है. किन्तु यहाँ विचारणीय प्रशन यह है की इन चेनलों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय ही नहीं विदेशी भी देखते हैं. भारतीय लोगों में कई ऐसे भी होते हैं जिन के परिवार अनेकों साल पहले जा कर दुसरे देशों में बस गए हैं. उन के बच्चों ने भारत के वारे में या तो अपने माता पिता से सूना है या किताबों में पढ़ा है या अब चेनलों की इतनी मकबूलियत के बाद इन से अपनी मात्रभूमि की कहानिया सुनते हैं. ज़रा आप कल्पना कीजिए के जब ऐसे लोग इन नाटकों को देखते होंगे तो उन के मन में हमारे देश और हमारे क़ानून के बारे में क्या राय बनती होगी. वो तो यही सोचते होंगे के भारत वाकई सपेरों और जादूगरों का देश है (एसा कई देशों में भारत के वारे में प्रचारित किया  जाता है.) वहां  ऐसी ही लचर क़ानून व्यवस्था होगी. एसा ही वहां का जनमानस होगा जो इतने पिलपिले मामलों में भी इस प्रकार की सजाओं को सहजता से स्वीकार कर लेता होगा.  

दूसरा कोई ना भी सोचे तब भी कम से कम हमें तो सोचना ही चाहिए के हमारे देश में न तो क़ानून ही इतना कमज़ोर है और ना ही यहाँ का मीडिया और ना ही हम लोग इतने जाहिल हैं की इन चेनलों पर दिखाई जाने वाली मूर्खता पूर्ण घटनाओं को सहज ही केवल मनोरंजन के नाम पर झेल जाएँ. वास्तविकता तो यह है की की इस प्रकार की घटनाएं नाटकों में होते देख कर हमें क्रोध तो निशित रूप से आता है, किन्तु हम केवल  यह सोच कर रह जाते हैं  की यह नाटक ही तो है, कोई सच्ची घटना तो है नहीं. और फिर नाटक के शुरू में ही नाटक कारों ने यह घोषित भी  कर दिया है की " इस नाटक में सभी घटनाएं, पात्र तथा स्थान काल्पनिक हैं"  यहाँ सब से महत्त्व पूर्ण बात यह है की क्या नाटकों / टी वी सीरियलों या फिल्मों में कला या नाटक के नाम पर किसी को किसी का मज़ाक उड़ाने की अनुमति दी जा सकती है? वो भी उस स्थिति में जब के मज़ाक में ही सही, जिसे लक्ष किया जा रहा है वो हमारा संविधान (क़ानून) है,