Dikshit Ajay K
Wednesday, July 17, 2013
Monday, September 10, 2012
दर्शक तो वेवकूफ हैं
Thursday, July 26, 2012
अब आज कल फिर से एक नई बहस शुरू हो गई है की महिलाओं को पुरुषों के संरक्षण की ज़रुरत है या नहीं. ज़रा सी भी रोक टोक को कुछ महिला सगठन अपने राजनेतिक लाभ के लिए इसे अपने तथाकथित नारी अस्मिता से जोढ़ कर अपना उल्लू सीधा करने में लग जाते हैं. उन को इस बात से कोई लेना देना नहीं है की इस से नारी जाती का भला हो रहा है या समाज का. उन का एक मात्र काम पुरुष जाती का विरोध कर के अपना झंडा बुलंद करना है. अभी कुछ दिन पहले ही मेरठ के पास के एक गाँव में पंचायत ने महिलाओं पर कुछ प्रतिबन्ध लगाए. इस बात की तह में गए बिना ही एक सुर में सब इस के विरोध में खरे हो गए और पुरे प्रकरण को ही आपराधिक / तालिबानी करार देने में कोई कसार नहीं छोरी. यह तो हमारा क़ानून भी कहता है की आरोपी का पक्ष सुने बिना किसी भी परिस्थिति में उसे दोषी नहीं घोषित किया जा सकता. दूसरा मुख्य विचारणीय बिंदु यह है के इस पुरे प्रकरण को ही आपराधिक / तालिबानी करार देने से पहले कोई यह तो बताये की यह निर्णय देने की पीछे निर्णायकों के मन में नारी जाती के प्रति कोई प्रतिशोध की भावना थी या यह निर्णय उन को कोई दंड देने के लिए गया? जिन के विरुद्ध (?) यह निर्णय लिया गया आखिर वो सभी निर्णायकों के बहन बेटियाँ या वधुएँ हैं वे क्यों कर अपने परिवारी जानो पर ऐसे निर्णय थोपेगे जिस से उन को किसी किस्म का मानसिक या शारीरिक संताप हो? दोनों ही प्रश्नों का एक ही निर्विवाद जवाब है - "नहीं". तो फिर यह निर्णय क्यों लिया गया ? अगर कोई प्रतिशोध या दंड देने की भावना इस के पीछे नहीं थी तो इस का एक मात्र कारण कारण यही हो सकता है की समाज ने नारी का शुभचिंतन करते हुए उन की व्यक्तिगत सुरक्षा को ध्यान में रख कर उपरोक्त निर्णय लिया. अब इसे जनरेशन गेप कहें या राजनेतिक प्रेरणा कुछ लोग इसे एक अलग नज़रिया से देख कर इसव के धनात्मक पहलुओं को भी नकारात्मक ढंग से प्रचारित कर के समाज विशेषकर नारी समाज को गुमराह कर रहे हैं. एसा कोई पहली बार नहीं हुआ है जब समाज सुधार के किसी कदम की तथाकथित समाज सुधारको ने विरोध नहीं किया हो.
- अध्यन रत छात्रों के द्वारा इस प्रकार की देर रात तक चलने वाली पार्टियों के आयोजन औचित्य क्या है?
- यदि किसी बात पर जश्न मनाना भी है तो आयोजन को एकांत में करने के पीछे क्या आयोजकों का आयोजन के पीछे का कोई अन्य भी स्वार्थ था?
- अध्यन रत छात्र छात्रायों के द्वारा प्रकार के आयोजनों में मदिरा के प्रयोग का क्या औचित्य है?
- सब से प्रमुख बात तो यह है के स्वयं अपनी सुरक्षा से लापरवाह छात्राएं क्या इस बात से अवगत नहीं थी की देर रात तक शराब पी कर लडको के साथ नाचने का क्या परिणाम हो सकता है?
- इस से भी से महत्वपूर्ण बात तो यह है की छात्राएं इस प्रकार के आयोजन में फेशन के नाम पर अर्धनग्न परिधानों में क्यों पहुँची ?
- क्या छात्रायों के इस कृत्य ( उत्तेजक परिधानों के प्रयोग को ) को उन के द्वारा छात्रों को अनेतिक कार्य करने के लिए उकसाने वाला कृत्य कहना अनुचित होगा?
Friday, May 7, 2010
काफी समय से पुरे संसार में अप्रकर्तिक संबंधों(?), जैसे होमो सेक्स तथा विवाह पूर्व संभंध (लिव-इन-रिलेशनशिप ) पर एक बहस चल रही है. इस के उचित/उनुचित ,कानूनी/गेरकानुनी सामाजिक/असामाजिक, धार्मिक/अधार्मिक होने के संभंध में बहस करने वालो के अपने अपने तर्क हैं. उन का अपना नज़रिया है, जिसे सही/गलत कहना खुद अपने आप में विवादास्पद है. कुछ पश्चिमी देशों ने इसे अपने जीवन मूल्यों के साथ अपना लिया है. पर हमारी सांस्कृतिक मान्यताएं हमें इस अप्रकर्तिक व्यवहार को अपनाने की अनुमति देने के लिए तैयार नहीं है. फिर भी हमारे समाज के बुध्जीवी वर्ग के लोग इस विवाद को अपनी उचित/उनुचित ,कानूनी/गेरकानुनी सामाजिक/असामाजिक, धार्मिक/अधार्मिक की कसौटी पर परख कर अपने खोज पूर्ण निष्कर्षों से सही/गलत साबित करने पर अमादा हैं. यदि उन के तर्कों को पुरी विचारशीलता के साथ परखा जाय तो यह बात स्पस्ट रूप से सामने आजाती है सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर कोई भी निर्णय लेना दुनिया की किसी भी अदालत के लिए संभव नहीं है. कोई भी जज कानूनी, धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को संतुस्ट करते हुए इस संभंध कोई सर्व मान्य निर्णय देने में सक्षम नहीं हो सकता. फिर भी हम इस विषय पर तर्क करने से नहीं चुकते.पर सवाल यह है की अगर हम आधुनिकता के नाम पर इन रिश्तों को अमली जामा पहनाते भी हैं तो तो सदिओं से सहेजे गए हमारी संस्कृति और संस्कारों का क्या होगा ?
कुल मिलाकर यह मसला किसी नैसर्गिक आवश्यकता से नहीं जुड़ा है बल्कि भोगवाद की पराकाष्ठा है कि सार्वजनिक मंच पर भी इस तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं कि लिवइन रिलेशनशिप वक्त और हालात की जरूरत है.वास्तविकता तो यह है की हमारे समाज में कुछ ऐसे अय्याश और भोगीलोग हैं जो तमाम तरह के कुकर्मो में लिप्त रहते हुए भोग के नए-नए साधनों की खोज में ही लगे रहते हैं. इस प्रकार की दूषित स्वतंत्रता के हामी भी वही लोग हैं. हमारे महानगरों में जीवन की एक नई शैली विकसित हो रही है, जिसमें घर-परिवार से दूर लड़के-लड़कियां जॉब कर रहे हों या पढ़ाई, उन्हें अपनी शारीरिक-मानसिक भूख को मिटाने के लिए ऐसे अनैतिक संबंधों की जरूरत पड़ रही है. तमाम लड़कियां नासमझी में और कुछ तो अपनी भौतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए लिवइन का सहारा लेती हैं.
इस फैसले के बाद इस प्रकार के संभंध को कानूनी संरक्षण तो मिल गया पर क्या कोई भी समाज इस बात को सामाजिक या धार्मिक परिवेश में गले से नीचे उतार पायगा?
नहीं ना?
फिर क्यों इस प्रकार के विबादित विषयों पर खामखाँ बहस कर के उन को कानूनी रूप देने का प्रयास किया जाता है. यह सत्य है की समाज और कानून एक दुसरे के पूरक हैं पर इस से यह अर्थ निकालना की किसी बात को कानूनी पजामा पहना कर उसे समाज पर थोपा जा सकता है, उचित नहीं कहा जा सकता. इस से समाज में अनावश्यक बाद विवाद, उलझन और असामाजिकता की स्थिती पैदा हो सकती है. इस बात की ओर न तो कानून को ही देखने की फुर्सत है और न ही उन तथा कथित समाजसुधारकों को, जो इस प्रकार के विवाद के बीज बोते हैं. इन समाजसुधारकों के प्रोत्साहन पर पहले भी कई बार कानून को विवादास्पद निर्णय देने के लिए वाध्य होना परा है. ज़रा देखीये तो -
उच्चतम न्यायालय के इन निर्णयों से पहले भी परतंत्र भारत में इस प्रकार के विवादास्पद फैसले होते रहे हैं. 1927 में अँगरेज़ जजों ने एक सिधांत का प्रतिपादन किया था जिसके अनुसार यदि कोई स्त्री - पुरुष पति-पत्नी के तरह एक साथ रहते हैं तो कानून की नजर में वे बिवाहित माने जाएंगे, यहाँ इस बात को संज्ञान में नहीं लिया जायगा की संभंधित महिला उसके साथ रखैल के तौर पर रहती थी। यहाँ एसा प्रावधान भी था की यदि पुरुष यह कहता है की उस महिला की शादी उस पुरुष से नहीं हुई थी, उसे अपनी बात को तथ्यों के आधार पर प्रमाणित करनी होगी।
अगर यह अवधि निर्धारित हो भी जाय तो इस बात की क्या गारण्टी है कि पत्नी का दर्जा मिलने के लिए जितना समय साथ रहना जरूरी है, वह कभी पूरा भी हो पाएगा? निश्चित अवधि पूरी होने के पहले ही स्त्री का भावनात्मक और दैहिक शोषण करके पुरुष यदि किसी दूसरी स्त्री के साथ लिव इन रिलेशनशिप बना ले तब क्या होगा? इससे उलट भी हो सकता है। स्त्री भी पुरुष का दैहिक और आर्थिक शोषण करके उसे कंगाल बना कर निश्चित अवधि से पहले छोड़ सकती है । खतरे दोनों तरफ मौजूद हैं। आज के दौर में उपभोगता वाद अर्थात यूज एंड थ्रो की वृत्ति इतनी प्रबल है कि यह वृत्ति रिश्तों पर भी हावी होती जा रही है। लिव-इन-रिलेशनशिप के हल्ले से पहले लोगों को इस प्रकार के समभंद बनाते समय कानून और समाज दोनों का भय होता था अतः पहले तो व्यक्ति ऐसे संभंध बनाने से ही परहेज़ करता था, अगर किसी ने बना भी लिए तो वोह इन्हें समाज से छुपा कर रखता था पट अब तो लोग पुरी बेशर्मी से कानून का हवाला दे कर हमारी संस्कृति और समाज के मुह पर कालिख पोतने से बाज नहीं आयेगे. इस के अलावा असली कोढ़ में खाज तो हमारा भांड मीडिया है जो अपनी TRP बढ़ाने के चक्कर में इस प्रकार के छिछोरी ख़बरों को भी राष्ट्रीय महत्व की ख़बरों के उपर रख कर इन को अनुचित महत्व दे कर प्रोत्साहित करने में कभी पीछे नहीं रहता.
लिव-इन-रिलेशनशिप को कानून में पहली बार एक पहचान तब मिली, जब घरेलू हिंसा कानून 2005 में महिलाओं को अपने पतियों तथा लिव-इन पार्टनर्स और उनके संबंधियों से संरक्षण प्रदान किया गया। अक्टूबर 2006 में जब यह कानून लागू हुआ तो इसमें शादीशुदा महिला ( विवाहिता) और लिव-इन-रिलेशनशिप (तथा कथित रखेल) वाली महिला में फर्क नहीं किया गया था।
एक मामले में के. सुब्बाराव पर अपने लिव-इन पार्टनर के साथ दहेज के लिए क्रूरता बरतने का आरोप था। बचाव में सुब्बाराव की दलील थी कि भारतीय दंड संहिता की दहेज प्रताड़ना वाली धारा 498 (ए) उन पर लागू नहीं होती क्योंकि लिव-इन पार्टनर से उनकी शादी नहीं हुई थी तथा उनकी शादी किसी दूसरी महिला से हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरिजीत पसायत और जस्टिस ए. के. गांगुली की बेंच ने उनकी दलील ठुकराकर दो टूक शब्दों में कहा कि महिलाओं के अधिकार के मामले में उसे कानून की संकीर्ण व्याख्या स्वीकार नहीं।
वैसे तो लिव-इन रिलेशनशिप की शुरुआत महानगरों के शिक्षित (?) और आर्थिक तौर पर स्वतंत्र ऐसे लोगों ने की थी जो विवाह की जकड़ से छुटकारा चाहते थे। पर अगर इस रिश्ते पर भी धीरे-धीरे विवाह कानून ही लागू होने लगेंगे तो जिन जकड़नों से लिव-इन रिलेशनशिप के जरिए मुक्ति चाही गई थी, वह मकसद ही खत्म हो जाएगा। ऐसे में शादी और लिव-इन रिश्ते में कोई फर्क ही नहीं रह जाएगा। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कहीं इससे बहु विवाह को प्रोत्साहन न मिलने लगे। एक अन्य अनुतरित प्रशन यह है कि यदि बाल-बच्चों वाला शादीशुदा पुरुष और एक सिंगल महिला लिव-इन रिश्ते में रहते हैं तो ऐसी स्थिति में (पहली) पत्नी की क्या हैसियत होगी? ऐसे में महिलाओं की बराबरी और मुक्ति की घोषणा से शुरू हुए इस रिश्ते का महिला विरोधी रूप उभर कर सामने आ जाएगा।
Wednesday, March 31, 2010
एक मज़ाक - नारी स्वतन्त्रता
माताओं और बहनों से क्षमा याचना करते हुए निवेदन है की आज कल समाज में एक मानसिकता सी चल परी हैकी नारी और पुरुष को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए. अपनी सवार्थ पूर्ती के लिए सभी राजनीतिक पार्टी केनेता लोग भी जवानी जमा खर्च करने में पीछे नहीं रहते यह बात अलग है की किसी को महिला वोटों की चिंता है तोकिसी को चूल्हे चोके की. पर दिल से न तो कोई इस बात को मानता है और ना ही प्रत्यक्ष समर्थन करने को तय्यारहोगा की महिलाओं को समानता का अधिकार मिले. यही कारण है की इतने साल गुजर जाने की बाद भी महिलासशक्ती करण, तथाकथित नारी मुक्ती आन्दोलन और अब महिला विधेयक की गाढ़ी पंचर पढ़ी है. और आगे वक़्तबताएगा की यह खटारा आगे जाय गी भी या अभी कितने साल और इस राजनेतिक चक्रवात में फँसी रहे गी. परइतना तो तय है की नारी भक्त राज नीतिज्ञ न तो इस आग को जलने हे देंगे और न ही बुझने। क्यों की उन कीस्वार्थसिद्धि इस आग के जलने या बुझने में नहीं केवल सुलगते रहने में है क्योंकी इसी सुलगती आग में हीराजनेतिक रोटी करारी सिकती है। दयनीय स्थिती तो समाज के उस वर्ग (केवल नारियां) की है जिस का उपयोगइस आग को सुलगाए रखने के लिए किया जा रहा है। यहाँ सब से बढ़ी बिडम्बना यह है की महिला समाज का एकप्रमुख वर्ग जिस से अपेक्षा की जाती है की वो महिला समाज का नेत्रत्व करे खुद अपनी रोटियां सकने में व्यस्त है।वेह वर्ग विशेष करे भी क्या? यह हकीकत तो पूरा नेत्रत्व जानता है की मिलना तो कुछ है नहीं तो क्यों ना अपनीरोटियां ही सेक ली जायं ? वास्तव में दयनीय स्थिति तो तब आती है जब ५०-५० रूपए के लालच में औरतें महिलासशक्ती करण, तथाकथित नारी मुक्ती आन्दोलन और महिला विधेयक की मर्ग मारीचिका के समर्थन में सारे दिनधुप में नारे लगाते हुए इस झूंठ को जीती हैं की अब वो पुरुष के बराबर होने योग्य हो गयीं हैं। इन से भी अद्किहादया की पात्र वे हैं को अपनी कार से, घर की बालकनी से या टेलीविज़न के परदे पर ही इस आन्दोलन को देख करखुश हो जाती हैं।
हम एक समाजिक प्राणी हैं और हमारे समाज ने जो हमारे लिए हजारों साल के अनुभव के आधार पर नियम बनाएहैं, यहाँ समाज ने "नियम बनाए हैं " कहना गलत होगा बल्की कहना तो यह चाहिए की प्रकर्ती के बनाए नियमो कासमाज ने तो मात्र अनुमोदन ही किया है की पुरुष हर हाल में नारी से श्रेष्ठ है। अब बेकार की बहस के लिए आप चाहेतो पुरुष और नारी की तुलना शारीरिक रूप से कर ले, मानसिक रूप से या तुलना का अगर आप के पास कोई दूसरापैमाना हो तो उस से कर ले. जब इश्वर ने ही पुरुष को नारी से हर लिहाज़ में श्रेष्ठ बनाया है तो कुछ लोग पता नहींक्यों खामखाँ ही नारी को सर पे बिठा कर प्राकर्तिक संतुलन को बिगारना चाहते हैं. इन में कोई दो राय नहीं हैं कीप्राकर्ति की सुंदरतम रचनाओं में नारी प्रमुख है. हमारे समाज की शत प्रतिशत नारीओं की यह तो हार्दिकअभिलाषा हो सकती है की पुरुष उन की इज्ज़त करे और उन दो दिल में बसाए, पर पुरुष की बराबरी की या उस केसर पर चढ़ने की अभिलाषी खुद नारी समाज की ही अधिक से अधिक २-४ या ६ % ही होंगी. पुरुष पर राज करने याउस की बराबरी करने के लिए पति को परमेश्वर मानने वाली नारी न तो सांस्कारिक तोर पर ही तैयार है नामानसिक या शारीरिक तौर पर. किन्ही कारणों से यदि कोई औरत पुरुष पर हावी हो भी जाय तो इस से उस कोकुछ क्षणिक संतोष तो मिल सकता है किन्तु इस से उस का जीवन एक रिक्तता से भर भर जाता है और वो रिक्ततातब तक ख़तम नहीं हो सकती जब तक वो किसी पुरुष के समक्ष खुद को समर्पित न कर दे. इन परिस्थितिओं केविरुद्ध नारी भक्त समाज के पास सिवाय कुतर्कों के कोई भी पुख्ता दलील तो है नहीं। लगभग सभी धर्मो में भी पुरुषको ही श्रेष्ठ बताया गया है तभी अनेकों धार्मिक कर्मकांडों पर पुरुष का ही एकाधिकार माना जाता है, और तो औरकई धार्मिक अनुष्ठानो में तो स्त्री का प्रवेश तक वर्जित होता है। इसी प्रकार कानून भी कई क्षत्रों में पुरुष को हीसक्षम मानता है स्त्रिओं को उन क्षत्रों के लिए अयोग्य माना जाता है। समाज ने भी नारी को कई क्षत्रों में प्रतिबंधितकर रखा है। धर्म, कानून और समाज तीनो एक मत हो कर जब पुरुष को श्रेष्ठ बताते तो अपने आप को कानून धर्मऔर समाज से उपर साबित करने की चाह में नारी भक्त अपना कोंन सा स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, यह एक शोधका विषय हो सकता है । वास्तव में आज नारी को संरक्षण के आवश्यकता है जिसे कुछ स्वार्थी लोग समानता कानाम दे कर पुरे समाज को गुमराह करना चाह रहे हैं।
नारी सदां से पुरुष की आश्रिता रही है. पुरुष का आदि काल से यह कर्त्तव्य रहा है की वो उस का पालन करे और उसकी रक्षा करे. उस पर किसी भी प्रकार का अत्याचार या अन्याय न तो पुरुष श्रेष्ठ को शोभा ही देता है और ना हीकिसी भी परिस्थिती स्वीकार्य हो सकता है. संकट के समय सदां ही नारी, चाहे वो सीता हो या द्रोपदी या सूर्पनखा याफिर आज की कोई भी तथा कथित आधुनिका, पुरुष से ही रक्षा की अपेक्षा करती है।
प्राचीन भारतीय विद्वानों के अनुसार इन नौ रहस्यों को बाहरी व्यक्ति, नारी, शत्रु, पड़ोसी और राजा पर विशेष परिस्थितों के अलावा प्रकट नहीं करना चाहिए, क्यों की सामान्यतः ये विश्वासी प्रबरती के नहीं होते। ये अपने अज्ञान, दंभ, कपट या स्वार्थ के कारण कभी भी धोका दे सकते हैं।
1. अपनी उम्र।
2. आय-संपत्ति तथा इसे कमाने का ढंग।
3.इन को पारिवारिक समस्याओं में दखलंदाजी करने की इजाजत न दें। इजाजत देने पर आप इन को परिवार का उपहास करने या समाज में प्रसारित करने का मौका दे देते हैं।
4. अंतरंग संबंध के बारे में कभी इन के समक्ष जिक्र न करें। इन के सामने किसी की शिकायत भी न करें। ये आपकी कमजोरियों का दूसरे के हाथ पहुंचा सकते हैं जो आपकी पराजय और दूसरे की जीत का कारण बन सकती है ।
5. आपको क्या बीमारी है और आप क्या दवा ले रहे हैं, इस बारे में कभी भी खुलासा न करें। ऐसा करने पर ये लोग गलत मशविरा देंगे और बेकार में ही अवांछित लोगों को जानकारी मिलेगी।
6. धर्म और आध्यात्मिक रुझान अथवा राजा के सम्बन्ध में अपने विचार (राजनीती ) के बारे में इन से चर्चा न करें। यह इन बातों को बहस का मुद्दा बना सकते हैं।
7. आपने कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि, पुरस्कार या सम्मान हासिल किए हैं, तो बिना प्रसंग के इन लोगों को न बताएं। व्यर्थ में ऐसा करने से ये लोग आपके प्रति ईष्र्या या नकारात्मक भाव रखना शुरू कर देंगे।
8. जीवन की किसी अपमानजनक घटना का इन के समक्ष खुलासा न करें। खुलासा होने की स्थिति में ये लोग आपका उपहास करने में सब से आगे रहेगे ।
9. दूसरों ने आप पर विशवास जताते हुए जो राज या रहस्य बताएं हैं, उनका कभी इन के समक्ष खुलासा न करें। यह विश्वासघात कर उसे जनचर्चा का विषय बना सकते हैं ।
‘यह बात प्रत्यक्ष भी देखने में आती है कि जो स्त्रियाँ स्वत्रन्त्र होकर रहती हैं, वे प्रायः नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। विद्या, बुद्धि एवं शिक्षा के अभाव के कारण भी स्त्री स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है।’ खुद को इस भरम में रखने के लिए के वो भी पुरुष से कम नहीं है कभी कभी बो भी पुरुष के साथ मैदान में कूद तो परती हैं पर जब वास्तविकता से सामना होता है तो वे भी पुरुष सत्ता को स्वीकार कर या तो समर्पण कर देती हैं या सहयोग की याचना करने लगती हैं जब की उन ही परिस्थितिओं में पुरुष खुद लाढ़ता है और अपनी बुधी, विवेक और बल से विजय भी पाता है.
आदि काल से ही हमारे पूर्वजों ने पुरी तरह से सोच विचार कर ही एक पुरुष प्रधान समाज की रचना की है, उस कीदूरदर्शिता के कारण ही आज भी हमारी सामाजिक व्यवस्थाएं उन परम्पराओं का पालन करते हुए फल फुल रहीं हैं. क्या कभी आप ने कल्पना की है की अगर हजारो साल पहले इस बराबरी का मुर्खता पूर्ण विचार हमारे पूर्वजो कोआ जाता तो आज समाज की क्या स्थिति होती. नहीं सोचा ना? तो अब सोच कर देखे, दिमाग का फालूदा बन जायगा और वेह काम करना बंद कर देगा. फिर भी अगर और सोचने का प्रयास किया तो दिमाग का फ्युस उढ जाय गा, कोई नतीज़ा नहीं निकले गा और अगर निकला भी तो कितना विनाशकारी होगा यह लिख पाना तो मुश्किल हैआप खुद ही सोचें.
पहले हमारे समाज को महिलाओं की चिंता नहीं थी या उन के प्रति प्रेम या सम्मान में कोई कमी थी
एसा नहीं है. जितनी चिंता आज महिलाओं की करी जाती है शायाद उतनी ही चिंता हमारे प्राचीन समाज को भी थी. शायद इसी सोच के चलते महिलाओं की सुरक्षा के लिए बाल विवाह तथा सती प्रथा का विकास हुआथा। बचपन सेही नारी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ही उन की बागडोर पुरुष को सोंप दी जाती थी तथा पति की म्रत्यु के बादउसे इस कदर निराश्रित मान लिया जाता था की अब उस का कोई रक्षक नहीं है अतः उसे मर जाना चाहिए। अबयह सोच निर्विवाद रूप से मुर्खता की परिचायक मानी जाती है, पर उस समय अगर लोगों की मानसिकता काअध्यन किया जाय तो यह स्पस्ट हो जाता है की इन सब पाशविक और मुर्खता पूर्ण सोच के पीछे पुरुष वर्ग की कोईदंडात्मक या प्रतिशोधात्मक भावना नहीं रही होगी अपितु उस ने इस प्रकार के नियम नारी की सुरक्षा को द्रस्तीगत रख कर ही किया होगा।प्राचीन समय में पर्दा प्रथा का चलन भी नारी की सुरक्षा को सर्वोपरि मान कर कियागया होगा। हमारे शास्त्रों में भी नारी को लक्ष्मी के स्वरुप में प्रतिस्था दी गई है और यह निर्विवाद सत्य है की लक्ष्मीकी सुरक्षा का दायित्व सदां से पुरुष पर रहा है। समाज में प्रतिष्ठा और विवाद के मुख्य मान दंड ज़र (धन) जनीनऔर नारी ही हैं। यह तीनो ही स्वयं अपनी सुरक्षा करने में सक्षम नहीं होते अतः इन की सुरक्षा का पूरा दायित्व सदांसे ही मर्द का रहा है। इन से कभी भी समाज ने यह अपेक्षा नहीं की की वे अपनी रक्षा खुद करे।
आज भी पुरे संसार का एक बरा वर्ग इस सोच का ही हामी है की नारी का आजीवन पुरुष के आश्रय में रहना ही खुदनारी के लिए ही नहीं समाज के लिए भी जरूरी है। इसी व्यवस्था के अन्तरगत नारी का बचपन पिता के, यौवन पति के तथा वृधा वस्था पुत्र के आधीन सुरक्षित मानी जाती है।
न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किञ्चित् कार्य़ं गृहेव्षपि।।
बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम्।।
कुछ अपवादों के अलावा खुद नारी भी इस व्यवस्थाके बाहर अपने को अ सुरक्षित समझती है। जितनी चिंतित नारी खुद अपनी सुरक्षा से नहिः होती उस से अधिकपुरुष उस की रक्षा को ले कर चिंतित रहता है । नारी की इस निश्चिंतता के मूल में यह ही है की उस ने खुद को पुरुषके आधीन मान कर समर्पण कर दिया है । और पुरुष को भी गर्व है की वो नारी के स्वाभेमान , सम्मान और नारीत्वकी रक्षा करने ने न केवल पुरी तरह से सक्षम है अपितु इस समभंद में उसे नारी का भी पूरा विशवास प्राप्त है ।
हमारे समाज का एक सर्वे मान्य नियम है की नारी को पुरुष के बराबर में नहीं उस के पीछे चलना है इस नियम का सख्ती से पालन करने और करवाने में भी नारी ही प्रमुख भूमिका निभाती है. इस नियम को तोढ़ने पर भी सब से तीखी प्रतिक्रया भी समाज के इसी वर्गे से ही आती है. क्यों की हज़ारों वर्षों के अनुभव ने आज नारी को इतना समझदार बना दिया है की अब खुद नारी को उस की इस सोच से डिगाना असंभव सा लगता है की वो कभी पुरुष की बराबरी कर सकेगी.
इतना सब होने के बाद भी महज़ कुछ वोटों की खातिर मुठी भर लोग बेचारी नारी को बरगला कर, उस की इक्षा के विरुद्ध पथ भ्रस्त कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं । अतः मेरा परम पूज्य माताओं और बहनों से करबद्धनिवेदन है की वो इन मौका परस्त लोगों के बहकावे में ना आये और अपनी बुधि, विवेक, संसकार, अंतर आत्मा कीआवाज़ और वास्तविक शुभ चिंतकों के परामर्श से ही कोई निर्णय ले क्यों की यह बहुत ही ज्वलंत सामाजिकप्रशन है जिस का अगर आज ही कोई उचित समाधान हम नहीं खोज पाए तो कल शायद यह विष बेल हमारे पुरीसामाजिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर देगी। मुझे अच्छी तरह से मालुम है की मेरेविचार पढ़ने के बाद आप का मन भी आंदोलित हो रहा और आप अपनी प्रतिक्रया देने के इक्षुक होंगे, अब चाहे वोमेरे समर्थन में हो या विरुद्ध पर में आप का स्वागत करूँ गा । यहाँ मेरा आप से करबद्ध निवेदन है की आप अपनीप्रतिक्रया ज़रूर दे चाहे वो कैसी भी हो पर प्रतिक्रया देने से पहले अपने दिल परहाथ रखें और मुझ से वायदा करें कीआप की प्रतिक्रया आप के दिल की आवाज़ है जो किसी व्यक्तिगत, राजनीतिक, लैगिक, धार्मिक या सामाजिकपुर्वाग्रह्ह से ग्रसित नहीं है.
बस.
Saturday, March 20, 2010
कुछ लोगों की यह सोच है की पुरे ब्रहमांड में केवल मानव ही सेक्स सिर्फ (?) मजे के करता है, तो हम आपको बताना चाहेंगे कि आप की यह सोच गलत हैं भी नहीं है. यह तो सही है की मानव के अतिरिक्त सभी प्राणी सेक्स संतानोत्पत्ति के लिए ही करते हैं यह बात अलग है की इस से उन को आनंद की भी प्राप्ती होती है फिर भी उन का मुख्य उद्देश्य संतानोत्पत्ति ही होता है. वास्तव में एक मानव ही है जिस की बुद्धी इतनी विकसित हो गई है की वो सेक्स को संतानोत्पत्ति, सेहत तथा आनंद के रूप में अलग-अलग परिभाषित करने में सक्षम है. जी हाँ यह चोकने की बात नहीं है अपितु एक वेज्ञानिक सत्य है की आनंद के अतिरिक्त सेक्स स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक होता है और अगर हर रोज इसका आनंद मिल जाय तो सोने में सुगंध वाली बात हो जाय. अनिद्रा की स्थिति में तो यह न केवल राम वाण दवा ही है. अपितु इस से मानसिक तनाव भी दूर होता है और शरीर से अतिरिक्त कलोरी भी जलती हैं. सेक्स प्रकर्ति के एक नियामत है, और प्रकर्ति की सम्पूर्ण जीवजगत से यह अपेक्सा होती है की वो इस से विमुख न हो। अगर हम एसा करते हैं तो यह न केवल पूरी तरह से अप्रकर्तिक होगा अपितु एसा कर के हम अपनी पोरी प्रजाति को खतरे में डाले गे। क्या आप ने कभी कल्पना की है की यदि यह जीवजगत केवल ३० वर्ष के लिए ही सेक्स से तोबा कर ले तो प्रथ्वी पर जीवो की संख्या में ८० % की कमी आ जाय गी ।
अभी कुछ समय पहले ही इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय ने अपनी खोज से यह प्रमानित कर दिया है की, जो लोग हफ्ते में दो से चार बार या ज्यादा सेक्स करते हैं, उनको महीने में एक बार सेक्स करने वालों के मुकाबले हार्ट अटैक का खतरा काफी कम हो जाता है। आम तोर पर देखा गया है की लोग किसी मानसिक परेशानी की स्थिती में सेक्स करने से कतराते हैं, ये गलत है, ऐसा कदापि मत कीजिए। तनाव में सेक्स तो आपके लिए आप के लिए राम वाण दवा का काम करेगा। यह तो खुद आप ने भी अनुभव किया होगा कि सेक्स से तनाव और दर्द दूर करने में मदद मिलती है। वैज्ञानिक तोर पर यह स्थापित बात है की सेक्स के दोरान ऑक्सिटोसिन नामक हॉमोर्न सामान्य से पांच गुना ज्यादा शरीर में प्रवाहित होता है, जिस से शरीर में रक्त संचालन तेज़ हो जाता है और इस से शरीर में स्फूर्ति का संचार होता है.
डाक्टरों के अनुसार अगर आप तनाब को सेक्स से दूर रखने में सफल हो जाते हैं इस का अर्थ है की आप अपने दिल को एक सामान्य व्यक्ति से १० गुना ज्यादा जवान रखने में सक्षम हैं. नियमित संभंध बनाने से शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक शमता में इजाफा होता है. और शरीर सामान्य सर्दी ज़ुकाम खांसी
सेक्स के समय दिल की धरकन काफी बढ़ जाती है। इससे shareer के सभी अंगों तथा
आज कल स्लिम ट्रिम बाडी का क्रेज़ रोजाना बढ़ता जा रहा है, जिसे लोग जिम जा कर या दूसरे उपाय अपना कर वेट कंट्रोल करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं, यहाँ भी आप के लिए एक खुशखबरी है. तमाम अध्यानो से यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि रोजाना सेक्स करने से आपको अपनी फालतू चर्बी कम करने में मदद मिलती है। अगर आप इस को आधा घंटा देते हैं, तो ८० -१०० कैलरी बर्न करते हैं। है ना फायदेमंद आम के आम गुथ्लीओं के दाम. !
फिर भी पता नहीं क्यों हम अपने सेक्स जीवन को गंभीरता से नहीं लेते। कोई समस्या हो तो भी इन संबंधों को लेकर किसी मनो विज्ञानिक के पास जाना तो हम संबंधों की असफलता की पराकास्था का द्योतक मानते है। परिराम ये होता है की विवाहित जीवन निराशाओं और कुंठाओं से भर जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार कुछ ऐसे संकेत हैं जिन को नजरअंदाज करना आपके आपसी संबंधों पर कुठाराघात करने के सामान है. मैं खुद कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ फिर भी मेरे अनुभव के अनुसार कुछ इसे मानदंड हैं जिन के वारे मैं पुनर्विचार की आवश्यकता है,:
नीम हकीम
हमारे लिए इस से बड़ी विडंबना क्या हो सकती है की हमारी अशिक्षा के कारण हमारे समाज मैं ऐसे पाखंडी लोगों हैं, जो खुद को योंन रोगों का विशेषज्ञ बताते हैं. साथ ही विज्ञापन के द्वारा ( जो भारत मैं पुरी तरह से गैरकानूनी है) अपना प्राचार कर सेक्स से सम्बंधित कई रोगों का ठेके पर इलाज़ करने का दम भरते हैं जब की वे खुद पुर्णतः अशिक्षित या अल्प शिक्षित होते हैं. ये लोग अपने नीम हकीमी ज्ञान के आधार पर ही समाज मैं उलटे सीधे मिथ्स फैला कर हमारी सेक्स अशिख्सा का भरपूर लाभ उठाते हैं. इन लोगों के अनुसार तो कई सामान्य सी बाते जैसे मस्टरबेशन या नाइटफॉल भी किसी कैंसर या एड्स से कम हानिकारक / हल्की बीमारी नहीं हैं और इन का भी "उन" से इलाज़ करवाना बहुत ज़रूरी है. "उन" के दवा खाने की बनी दवा ४५ दिन मैं गारंटी से आप के रोग (जो वास्तव मैं है ही नहीं) दूर कर देगी. मैं तो समझता हूँ की इन बीमारीओं से अधिक हानिकारक तो हमारी सेक्स अशिख्सा है जिस की कारण हम इन सब से विरक्त रहते हैं जिस से इन पाखंडी लोगो का होंसला और बरता है. सरकार या सम्बंधित अजेंसिओं से इन पर रोक की अपेक्षा करना तो बेकार है. इस से बेहतर तो ये होगा की हम खुद ही नींद से जागे और इस प्रकार के विज्ञापनों का प्रतिकार करे
हमारा अज्ञान
कई बार लोगों को यह यह भी स्पस्ट ही नहीं होता कि हमारी वास्तिविक समस्या क्या है? और जब वास्तिविक समस्या का ही भान न हो तो कब और किस से क्या कंसल्ट किया जाय इस बात का निर्णय कैसे हो सकता है? उदाहरण के लिए कभी कभी महिलाओं को जनन अंगों से संबंधी कोई समस्या होती है या कोई मूत्र विकार होता, तो उन की प्राथमिकता कोई स्त्री रोग विशेषज्ञ होता है, पर अक्सर देखा गया है की स्त्रिओं में ये समस्या किसी शारीरिक विकार से नहीं अपितु मनोविज्ञानिक कारणों, जिन में पति पत्नी के आपसी , पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में सामंजस ना होना प्रमुख है, इन परिस्थितीयों मैं बेचारा स्त्री
अक्सर देखा गया है की लोगों की सेक्स के वारे में सब से प्रमुख समस्या होती है की उन के साथी का व्यवहार उपयुक्त समय पर सहयोगात्मक नहीं होता. अन्तरंग क्षणों के लिए किसे प्रस्ताव रखना चाहिए और किसे उस का अनुमोदन करना चाहिए? अन्तरंग क्षणों की पूर्व क्रीडा के लिए कितना उपयुक्त समय होना चाहिए जिस से दोनों ही प्रतिभागी आनंदित हो और किसी को भी ऊब का अहसास न हो? पूर्व क्रीडा के बाद मुख्य काम क्रीडा में कोंन अधिक सक्रिय रहेगा और कोंन कम? काम क्रीडा की न्यूनतम आब्रती क्या होनी चाहिए? से साब निर्विवाद रूप से ज्योलंत समस्याए हैं जिन का समाधान तो सब चाहते पर इन का निदान कोई बहारी व्यक्ती करे ये तो शायद कोई भी नहीं चाहे गा. व्यक्ती के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ के लिए यह भी अतिआवश्यक है की इन सब समस्याओं का हल निकले।
यहाँ पर यक्ष प्रशन है - पर कैसे?
मेरे विचार से तो इस का एकमात्र समाधान ये है की दोनों पक्ष साथ बैठ कर आपसी विचार विमश से इस का हल निकाले. क्यों की यही एकमात्र रास्ता है इस लिए या तो अपनी खुशी से इसे अपना कर शांती पूर्वक जीवन यापन करे या आजीवन एक दोसरे पर दोषारोपण करते हुए अपना शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्वास्थ चोपट कर ले. फिर अंत में आप को किसी चिकित्सक की नहीं वकील की ही ज़रुरत रह जायगी
इस के अलावा एक और समस्या है वो है अप्रकर्तिक योंन आनंद प्राप्त करने की चाह. अब जो वास्तु या सुख अप्रकर्तिक है उसे अप्रकर्तिक ही माना चाहिए. ये तो हम सब ही जानते हैं की की प्रकर्ती अपने विरुद्ध बहुत ही कम चीज़ों को बर्दास्त कर पाती है. इस लिए उत्तम तो यही है की हम "उस" के बनाए नियम से बांध कर ही चले और अप्रकर्तिक योंन आनंद प्राप्त करने की चाह से बचे, फिर भी हम मानव सुलभ जिज्ञासा के कारण हमेशा से ही "वर्जित फल" के प्रति आकर्षित रहे हैं और इतिहास गवाह है की हम ने उसे चखा भी है. इस लिए मेरे विचार से ज्यादा बुराई तो इस फल मैं भी नहीं है यदि इसे आपसी सहमती और स्वीकृती "चखा" जाए, बाकी आप खुद समझदार हैं
एसा भी होता है की कोई पुरुष/महिला काम क्रीडा के दोरान अपने सहभागी को पुरे तरह से संतुस्ट नहीं कर पाता. इसी परिस्थिति मैं पहले तो बिना किसी संकोच के आपस में ही इस का समाधान निकलना चाहिए. अगर समाधान न भी निकले तो कम से कम यह तो निर्धारित करने का प्रयास करना चाहिए की आप की समस्या मनोविज्ञानिक है या चिकित्सीय. मेरा विशवास करे की इस प्रकार के ८०% से अधिक मामलो में समस्या मनोविज्ञानिक होती है जिसे आपसी समझदारी से बिना किसी खर्च के ठीक किया जा सकता है. अगर आप किसी मनोविज्ञानिक के पास जाते भी हैं तो वो भी कोई दवा तो देगा नहीं वो भी आप को आपके आचार विचार में सुधार लाने को कहे गा. यह तो आप खुद भी अपने बुधि विवेक और आपसी विचार विमश से कर सकते हैं. १५ दिन इस नुस्खे को आजमा कर देखे लाभ ज़रूर होगा।
यह एक परम सत्य है की सेक्स एक नितांत व्यक्तिगत विषय है तथा इस मैं हर एक की अपनी अलग प्राथ्मिक्ता, पसंद व् स्वाद हो सकता है. इस लिए इस विषय में किसी को कोई राय देने वाला (मेरे समेत) अकल्मन्द तो हरगिज़ नहीं कहलायगा, हाँ राय लेने वाला जिज्ञासु या अकल्मन्द ज़रूर हो सकता है. वास्तव मैं सेक्स के संभंध में बिस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु होना, अज्ञानता वश किसी अपराध भावना या हीन भावना से ग्रसित होने से लाख गुना बेहतर है. यह भी ज्ञान का एक गहरा समंदर है जिस पर हमारे ऋषी मुनिओं और पुरखों ने शास्त्रों तक की रचना कर दी है. तो हम खुद को या अपने समाज को इस से वंचित कैसे रख सकते हैं. इस सम्बन्ध में और ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपसी विचार विमश, नियंत्रित मन से आत्म चिंतन, स्तरीय साहित्य का अध्यन, अथवा किसी ज्ञानी या सेक्स विशेषज्ञ से सलाह करने की भावना को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए